( कुँवर नारायण हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि हैं l वे साहित्य के अतिरिक्त कला,
सिनेमा, रंगमच, समय और समाज पर लिखते रहें हैं l चक्रव्यूह (1956) से लेकर कुमारजीव
(2016) तक उनका काव्य-संसार विस्तृत है l ‘उम्मीद’ पर आज उनके द्वारा ‘मल्लिकार्जुन
मंसूर’, ‘भीमसेन जोशी’ और ‘अली अकबर खां’ पर लिखित टिप्पणी साझा कर रहा हूँ l इसे वाणी
प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के संपादकत्व में प्रकाशित ‘कुँवर
नारायण : संसार’ से लिया गया है l-
मॉडरेटर )
यहाँ कुँवर नारायण की एक कविता सुनिए उनके ही आवाज़ में
https://www.youtube.com/watch?v=QKOOcxODQok
‘मल्लिकार्जुन मंसूर’
शुद्ध और अत्यंत सधी हुई तानों के सघनतम आश्रय पर एक राग के
सूक्ष्मतम भेदों का कुशल विन्यास l लयकारी में गंभीर शास्त्रीय अनुशासन के साथ-साथ
पूरी रोमांटिक ऊर्जा का लगभग आध्यात्मिक आनंद की सीमा का विस्तार l अब, लगभग 70
वर्ष की आयु में, भी आवाज़ में अद्भुत ठहराव, निखार और सफ़ाई l अतरौली घराने की गायन
शैली को एक नई ऊँचाई तक पहुँचा सकने वाले सिद्ध और धीर गायक l उनकी क्लिष्ट गायकी
हर एक की पसंद की गायकी न होते हुए भी एक अत्यंत संवेदनशील, प्रौढ़ और प्रतिभा
सम्पन्न गायक की शिखर पर पहुँची हुई कला है l यदि रस के अर्थ को शुद्ध भावनात्मक
स्तर पर ही खोजने का आग्रह न हो तो उनके गायन की कहीं-कहीं लगभग सात्विक-सी
निर्लिप्तता एक दुर्लभ बौद्धिक संतोष देती है l
youtube पर सुने मल्लिकार्जून मंसूर को
‘भीमसेन जोशी’
किराना गायकी के बेजोड़ गायक l इनका गायन किसी राह की शुद्ध
अवधारणामात्र नहीं, एक साहसिक खोज और अन्वेषण का अनुभव भी है l स्वर रचना के मानों
एक से अधिक आधारों को रचती हुई आबाज़ में अपूर्व फैलाव, बारीकी और दृढ़ता का जटिल
गुम्फन तथा गति के उतार चढ़ाव में कोमल और भव्य का वह संतुलित आचरण जो एक विश
प्राकृतिक दृश्य के अलौकिक सौन्दर्य की याद दिलाता है l विलंबित में जिस मूड की
मननशील स्थापना होती है, उसकी द्रुत में अत्यंत तेजस्वी परिणति नाटकीय के अर्थ को
बहुत ही सावधान संकेतों में आलोकित करती है l बड़े ख्याल में ही नहीं भजन और ठुमरी
में भी शास्त्रीय स्तर का भावनात्मक वैभव l...इधर कुछ वर्षों से उनके गायन में,
विधिता की दृष्टि से एक ठहराव-सा अनुभव होने लगा है l गिरावट नहीं है तो इसे एक
प्रतीक्षा का सारगर्भित अंतराल भी माना जा सकता है...
youtube पर सुने भीमसेन जोशी को
https://www.youtube.com/watch?v=DKigJpgLEf0
‘अली अकबर खां’
सरोद-वादन में गायन की-सी सम्पूर्णता और मधुर जीवन्तता l वादन-शैली में
शालीनता और गरिमा l प्रयोगशीलता में परम्परा का निषेध नहीं, एक नई अर्थवत्ता में
विकास l शास्त्रीय मर्यादा का अर्थ केवल पुरानी परिपाटी का अनुसरण नहीं उसे आगे
बढ़ा सकने की क्षमता है, इसे जितनी सुगढ़ और सशक्त अभिव्यक्ति अली अकबर खां और
रविशंकर दे सके हैं उतना अन्य कोई भारतीय वाद्यकार नहीं l अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर
उनके काम की स्वीकृति उनके दृष्टिकोण और कोशिश के द्योतक है l लेकिन मुझे जैसे
पुराने प्रसंशकों को – जिनकी यादों में अली अकबर खां के एक अत्यंत शांत और तन्मय
सरोद-वादन की कोमल छवि है, खास कर उनकी अत्यंत संयत, सधी हुई और कलापूर्ण अलापकार
की- उन्हें हो सकता है उनका इधर का वादन कुछ ज्यादा उद्यत लगे : मगर, एक दुसरे तरह
के श्रोताओं को वहीं अधिक संतोषप्रद भी लग सकता है l
youtube पर सुने अली अकबर खां को