Sunday 26 March 2017

संगीत के तीन विशारद बरास्ते कुँवर नारायण

( कुँवर नारायण हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि हैं l वे साहित्य के अतिरिक्त कला, सिनेमा, रंगमच, समय और समाज पर लिखते रहें हैं l चक्रव्यूह (1956) से लेकर कुमारजीव (2016) तक उनका काव्य-संसार विस्तृत है l ‘उम्मीद’ पर आज उनके द्वारा ‘मल्लिकार्जुन मंसूर’, ‘भीमसेन जोशी’ और ‘अली अकबर खां’  पर लिखित टिप्पणी साझा कर रहा हूँ l इसे वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के संपादकत्व में प्रकाशित ‘कुँवर नारायण : संसार’  से लिया गया है l- मॉडरेटर )
यहाँ कुँवर नारायण की एक कविता सुनिए उनके ही आवाज़ में 

https://www.youtube.com/watch?v=QKOOcxODQok

‘मल्लिकार्जुन मंसूर’
            शुद्ध और अत्यंत सधी हुई तानों के सघनतम आश्रय पर एक राग के सूक्ष्मतम भेदों का कुशल विन्यास l लयकारी में गंभीर शास्त्रीय अनुशासन के साथ-साथ पूरी रोमांटिक ऊर्जा का लगभग आध्यात्मिक आनंद की सीमा का विस्तार l अब, लगभग 70 वर्ष की आयु में, भी आवाज़ में अद्भुत ठहराव, निखार और सफ़ाई l अतरौली घराने की गायन शैली को एक नई ऊँचाई तक पहुँचा सकने वाले सिद्ध और धीर गायक l उनकी क्लिष्ट गायकी हर एक की पसंद की गायकी न होते हुए भी एक अत्यंत संवेदनशील, प्रौढ़ और प्रतिभा सम्पन्न गायक की शिखर पर पहुँची हुई कला है l यदि रस के अर्थ को शुद्ध भावनात्मक स्तर पर ही खोजने का आग्रह न हो तो उनके गायन की कहीं-कहीं लगभग सात्विक-सी निर्लिप्तता एक दुर्लभ बौद्धिक संतोष देती है l

youtube पर सुने मल्लिकार्जून मंसूर को 

भीमसेन जोशी’
            किराना गायकी के बेजोड़ गायक l इनका गायन किसी राह की शुद्ध अवधारणामात्र नहीं, एक साहसिक खोज और अन्वेषण का अनुभव भी है l स्वर रचना के मानों एक से अधिक आधारों को रचती हुई आबाज़ में अपूर्व फैलाव, बारीकी और दृढ़ता का जटिल गुम्फन तथा गति के उतार चढ़ाव में कोमल और भव्य का वह संतुलित आचरण जो एक विश प्राकृतिक दृश्य के अलौकिक सौन्दर्य की याद दिलाता है l विलंबित में जिस मूड की मननशील स्थापना होती है, उसकी द्रुत में अत्यंत तेजस्वी परिणति नाटकीय के अर्थ को बहुत ही सावधान संकेतों में आलोकित करती है l बड़े ख्याल में ही नहीं भजन और ठुमरी में भी शास्त्रीय स्तर का भावनात्मक वैभव l...इधर कुछ वर्षों से उनके गायन में, विधिता की दृष्टि से एक ठहराव-सा अनुभव होने लगा है l गिरावट नहीं है तो इसे एक प्रतीक्षा का सारगर्भित अंतराल भी माना जा सकता है...  

youtube पर सुने भीमसेन जोशी को
 https://www.youtube.com/watch?v=DKigJpgLEf0


‘अली अकबर खां’

सरोद-वादन में गायन की-सी सम्पूर्णता और मधुर जीवन्तता l वादन-शैली में शालीनता और गरिमा l प्रयोगशीलता में परम्परा का निषेध नहीं, एक नई अर्थवत्ता में विकास l शास्त्रीय मर्यादा का अर्थ केवल पुरानी परिपाटी का अनुसरण नहीं उसे आगे बढ़ा सकने की क्षमता है, इसे जितनी सुगढ़ और सशक्त अभिव्यक्ति अली अकबर खां और रविशंकर दे सके हैं उतना अन्य कोई भारतीय वाद्यकार नहीं l अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनके काम की स्वीकृति उनके दृष्टिकोण और कोशिश के द्योतक है l लेकिन मुझे जैसे पुराने प्रसंशकों को – जिनकी यादों में अली अकबर खां के एक अत्यंत शांत और तन्मय सरोद-वादन की कोमल छवि है, खास कर उनकी अत्यंत संयत, सधी हुई और कलापूर्ण अलापकार की- उन्हें हो सकता है उनका इधर का वादन कुछ ज्यादा उद्यत लगे : मगर, एक दुसरे तरह के श्रोताओं को वहीं अधिक संतोषप्रद भी लग सकता है l 
youtube पर सुने अली अकबर खां को 



Saturday 25 March 2017

"सुमित चौधरी की तीन कविताएँ"

( सुमित हिंदी कविता के युवतम स्वर हैं । कविताओं के बारे में मेरे कहने से ज्यादा यह कविताएँ आपसे खुद संवाद करें तो अच्छा है । 'उम्मीद' ब्लॉग सुमित को उनकी रचनात्मकता के लिए शुभकामनायें देता है और उनको यहाँ होने के लिए अपना आभार भी प्रकट करता है । - मॉडरेटर )
1.
जी.बी.रोड"

आज मैं जी.बी.रोड होना चाहती हूँ इलाहबाद, महाराष्ट्र
और बंगाल होना चाहती हूँ एशिया की सबसे बड़ी
बाज़ार होना चाहती हूँ
आज मैं तुम्हारी सरकार होना चाहती हूँ जिससे हर कोई मंत्री
पाँच मिनट में बदल दे अपनी एंट्री

मैं संसद होना चाहती हूँ समुद्र मंथन होना चाहती हूँ मैं तुम्हारे किए की
हर वो बीज होना चाहती हूँ
जो फिर से कहे
आज भी मैं जी.बी.रोड होना चाहती हूँ ।



2
"दौलत के दांत"

आज के इस दौर में
दौलत के दांतों से
नाखूनों के ख़ंजर से
और गुब्बारे के दिल से मिलते हैं रिश्ते बड़ी मुश्किल से नया हो गया है
रिश्तों का बुत
और ढ़ह गई है जाति की खाई
ले लिया है उसका स्थान उपजाति ने
उप दौलत ने
उप धर्म ने
और लिया है स्थान उपदेश ने क्योंकि बदलते हुए भूगोल का सपना बदल नहीं सकता
सूरज का उगना टल नहीं सकता हवाओं का बहना रुक नहीं सकता रुक सकता है केवल और केवल रिश्तों का बुत, रिश्तों का बुत आज के इस दौर में
आज के इस दौर में...



3
"हाँ मैं हूँ देशद्रोही"

जब-जब इतिहास में
झांककर देखता हूँ
तो नज़र आती है लंबी कतार देशद्रोहियों की
पहला देशद्रोही जयचंद था दूसरा था राणा सांगा
तीसरा देशद्रोही तुम हो
जो कभी ले न सके देश का हाल और भोक दिया ख़ंजर
अपने ही राष्ट्रपिता को देशद्रोही कह कर
और चौथा देशद्रोही मैं हूँ क्योंकि मैं आज़ादी की बात करता हूँ बस्तर की आवाज़ उठाता हूँ कुचली बहनों की आवाज़ उठाता हूँ कुचले लोगों की आवाज़ उठाता हूँ अन्नदाता की आवाज़ उठाता हूँ अल्लाह और ईश्वर की इबादत करता हूँ तुम्हारी हाँ में न करता हूँ करता हूँ मैं हर वो काम
जो तुम्हें नहीं है पसंद इसीलिए हूँ मैं देशद्रोही क्योंकि तुम्हारे गणतंत्र में लुटती हुई आबरू
चीखता हुआ इंसान
गर्भ पाल कर मजदूरी करती स्त्री पेड़ पर लटकता हुआ अन्नदाता बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण करने वाला मजदूर और हाथ फैला कर भीख मांगता हुआ बच्चा भारत का भविष्य नहीं बन सकता बन सकता है वो
केवल देशद्रोही, केवल देशद्रोही वह भारत का भाग्य विधाता भी बन सकता है जैसे इतिहासों में दर्ज है हज़ारो नाम
अम्बेडकर से लेकर कलाम तक लेकिन अब नहीं होगा ऐसा क्योंकि अब जो भी बनेगा इनकी तरह वह होगा देशद्रोही
वह होगा देशद्रोही

पता :-
सुमित चौधरी
शोधार्थी
भारतीय भाषा केंद्र
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली- 110067
मोबाइल-9654829861
Email.sumitchaudhary825@gmail.com