Friday 15 August 2014

वसंत सकरगाये की कविता ' रविशंकर के छाते से होकर'

हमारे प्रिय आचार्य के लिए वसंत सकरगाये जी द्वारा लिखी गयी एक कविता आचार्य रविशंकर उपाध्याय भैया को याद करते हुए ...
                                                               (आचार्य रविशंकर उपाध्याय )
सूचनाओं से सम्पन्न इस दौर में शायद ही कोई मुझ सा अभागा होगा,जिसे किसी के
निधन का त्रासद समाचार कोई दो ढाई माह बाद मिले।
यह 24 जुलाई की सुबह लगभग साढे सात का वक्त है।रोज की तरह अपनी राइटिंग
टेबल पर कुछ विचार साधने की उधेङबुन में लगा हूं । बात है कि जरा भी नहीं बन
रही है।फिर मोबाइल उठाया और उससे छेङछाङ करने लगा।सहसा सम्पर्क सूची पर उंगली
हरकत करने लगी ।और स्क्रीन पर तेज भागते नामों में आया- r s upadhyay ...अरे
अरे ! यह क्या,रविशंकर से इतने दिनों से बात क्यों नहीं हुई।उसने भी फोन नहीं
लगाया।वरना माह डेढ माह में बात हो जाया करती है।
उसका नम्बर डाॅयल किया।फोन रिसिव नहीं हुआ।सोचा सो रहा होगा।या दैनिक
कार्यों की निवृति में लगा होगा।फिर न जाने क्यों किस झोंक में कागज पर उसका
नाम लिखने लगता हूं।
कोई आधे घंटे बाद नामालूम नम्बर से फोन आया।उधर वाले ने बताया की वह
रविशंकर का अनुज वंशीधर बोल रहा है।..... तो रविशंकर कहां है! बहुत हल्के पल
की एक चुप्पी।फिर वंशीधर की भर्रायी सी आवाज जैसे गले से बाहर न आना चाहती हो।
वह कहता है-आपको नहीं पता भैया का 18 मई को निधन हो गया।
क्या! मैं हतप्रभ लगभग मेरी अंतर्आत्मा चीख उठती है।वंशीधर इस दुर्घटना का
ब्यौरा दे रहा है और मैं कम से कम बोलकर जैसे इन कठिन पलों से जल्द निजात
चाहता हूं।मेरी आंखों में रवि का समूचा व्यक्तित्व घूमने लगता है।प्रत्यक्षता
के वे शरुआती लम्हात जब वह बीएचयु के प्रवेश द्वार पर छाता लगाए मेरी
प्रतीक्षा कर रहा है,बीती28 फरवरी की बेमौसम बारिश में रात10:30बजे।फिर कैसे
हम कवि मित्र उसके उस छोटे से छाते में सभी समाते रहे अगले दो दिन उस नामुराद
बरसात में।उसके छाते भीतर हमने किस किस अग्रज कवि को याद किया।
वंशी से बात खत्म होते ही मैं फफकने लगा। आंखों से एक बूंद निकल कर गिरने को
थी कि मैंने बांए हाथ की हथेली पर रोक लिया।कहीं वो बूंद नीचे कागज पर वहां न
गिरे जहां उसका नाम लिखा है।
सोचता हूं , मैं अन्य लोगों की वनिस्बत कुछ यूं भाग्यशाली रहा कि रवि की
मृत्यु का समाचार मुझे67 दिन बाद मिला।यानि वह मेरे लिए 67 दिन और जीवित रहा।
प्रस्तुत कविता मेरे भावुक मन की ईमानदार अभिव्यक्ति है। कहीं कोई गलती लगे
तो कृपया क्षमा कीजिएगा।

                                                               (आचार्य रविशंकर उपाध्याय )
रविशंकर उपाध्याय के छाते से होकर

हिंदी क्षत्रपकों के शहर बनारस में
एक ही तो छोटा छाता था उसके पास

नहीं नहीं छाता नहीं बल्कि
एक मोर्चा खोल रख्खा था उसने
आसमान की तमाम निर्ममताओं के खिलाफ
और उसके समर्थन में सट्ट खुलती थी एक एक तान
उसके छाते की बिना आनाकानी

कितने ही मित्र माथों की रचीबसी थी गंध
उसके छाते भीतर
कि विंध्याचल यादव ,कुमार मंगलम,निशांत,अरुणाभ सौरभ
शामिल हुआ मैं भी उसके छाते अंदर
कि कुछ श्रध्देय शीशों -
जैसे श्रीप्रकाश शुक्ल,ज्ञानेंद्रपति,लीलाधर जगूङी,अरुण कमल,राजेश जोशी
की उपस्थिति से महकता था उसके छाते का अंतरंग

कि सिर पर रख उसके खुले हुए छाते को
वे जिन्होंने गुस्ताखियां की उंगलियों पर नचाने की
कि दर्द से चीख भी न पाए नामोसी के डर से
उफ! कितनी कङी सजा देती थीं तनी हुई तानें
कि नोंच लेती थीं सिर के बालों को
कितना दु:खा होगा फिर उसका कविमन!

हाथों में ताने हुआ अपना छोटा सा छाता
मेंढकों की घाईं उछलते फुदकते
हर आॅटो रिक्शा पर टकटकी लगाए
बाट जोहता मित्रों महमानों की
अब खङा नहीं मिलेगा कभी वह
गले लगने को आतुर
काशी हिंदु विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर

फिर होंगे फिर फिर होंगे बीएचयु में कविताई जलसे
फिर रची जाएगी शब्द उत्सवों की रूपरेखाएं
कितनी ही बार आएगा उसका फिर रूप सामने
और सुधियों की तमाम रेखाओं को
आंखों की कोरों में छुपाने के बावजूद
कुछ कहना बताना चाहेंगे-मंगलम,विंध्याचल,अमृत सागर को
बरबस ही निकल पङेगा श्रीप्रकाश शुक्ल के मुंह से-
सुनो रविशंकर!
और चश्मे को थोङा ऊंचाकर
उंगलियों पर थाम लेंगे आंखों की बूंद दो बूंदों को
कि इन्ही किसी बूंद में मिलेगा वह ठिठका हुआ
काख में दबाए अपना छाता

देखो देखो ये बूंदें देखों!
बह आई थीं जो उसके छाते की तानों से होकर
मेरे सिर में समायी हुईं है
और टपक रही हैं फिलवक्त मेरी आंखों से एक एककर
कि रोक रहा हूं जिन्हें बांयी हथेली पर
कि टपके तो कहीं मिट न जाए उसका नाम
और ना मिटे ना धुंधलाए
पर सूखने बाद सिकुङ ही जाएगा
जो गीला हुआ यह कागज
और मैं नहीं चाहता किसी भी ऐसे कागज पर
ऐसीवैसी कोई सलबटें
जिस पर लिखा हो उसका नाम-
रविशंकर उपाध्याय


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                                                             ( वसंत सकरगाये )