Thursday 22 December 2016

मसान के अघोरी परंपरा के नाथ कवि सर्वेश सिंह की कवितायेँ

अब जब मैंने अपने ब्लॉग को नियमित करने की कोशिश में लगा हूँ, तब कोशिश करूँगा कि कुछ सर्जनात्मक चीजें यहाँ आप सभी से साझा करूँ l आपसे संवाद एकतरफा ना हो इस वजह से आप की उपस्थिति भी आवश्यक है l आज यहाँ बनारस के युवा कवि, कहानीकार, आलोचक और बहुत जल्द ही उपन्यासकार सर्वेश सिंह की कुछ कवितायें साझा कर रहा हूँ l इस उम्मीद में कि वे जल्द ही अपने सद्यःप्रकाशित उपन्यास और आलोचना के आलेख भी यहाँ उपलब्ध कराएँगे l युवा कवि सर्वेश सिंह बनारस के 'मसान के अघोरी परम्परा के नाथ कवि' हैं l भाषा में निर्मलीय निर्मलत्व लिए हुए एवं जीवन और मिजाज़ में बनारसी कवि की यह कविता संभवतः आपको पसंद आये l (मॉडरेटर)
(सर्वेश सिंह)


लौट जाओ बेटी

गुरुत्त्व था तुम्हारा बचपन
इस घर के लिए
हाथों से पकड़ जिसे
घूम लिया पृथ्वी और आकाश
पर लपेट हर बार तुमने खींच लिया
अपने मोंह के परेते में

लेकिन घर जीवन की हद नहीं है मेरी बेटी

और इसीलिए अब जबकि तुम बड़ी हो गयी हो
तो मैं चाहता हूँ की तुम्हें दूं
एक लम्बी हरी धरती
और एक असीम खुला आसमान
बढ़ने के लिए
उड़ने के लिए

पर दुविधा में हूँ
कि तुम्हे भेजूं कहाँ मेरी बच्ची ?

देखता हूँ इस शहर में हैं कड़कड़ाती हड्डियों सी सड़कें
और आवारा सांड से चौराहे
मोक्ष की इस नगरी में
स्वर्ग को जाता हर रास्ता
बजबजाते कीच और फूलमालाओं के लोथड़ों से होकर गुजरता है
मुक्ति की चाहना को किसी की आँख में देखते ही
यहाँ ईश्वर के दूतों की देह में उग आते हैं खूनी पंजे
और वे शरीर ही नहीं
आत्मा को भी नंगी कर
अपनी धार्मिक वासना की प्यास खोज लेते हैं

पत्थरों की बिसात पर खुरची गई हर सुकुमार देह को देख
मैं सिहर उठता हूँ मेरी बच्ची

हालाँकि हो सकता है की इन रास्तों से बच बचाकर
तुम अपनी मरजाद लेकर निकल भी आओ
पर इसी शहर की उन उन्मादी रातों को कैसे भूल जाऊं
जिनमें आदमी, भेड़ियों में तब्दील हो जाता है
और मासूम बच्चियों तक को दबोच कर
गंगा की तलहटी में विलीन हो जाता है
कहते हैं की वे भेडिए उन तलहटियों में
उन बच्चियों की हड्डियों से भी मिटा लेते हैं
अपनी जीभ और उँगलियों की तृष्णा
और फिर उन्हें उसी गंगा में बहा देते हैं.
फिर सुबह उन्ही पानियों में नहाकर
लोग स्वर्ग के रास्तों पर बढ़ जाते हैं

मंदिरों का यह शहर मुझे मुफीद नहीं लगता तुम्हारे लिए बेटी

तो क्या तुम्हे राजधानी दिल्ली भेज दूं ?
जहाँ डीयू और जेएनयू हैं !!

यह ख़याल अक्सर मुझे उत्साहित करता है बेटी
पर इधर दिल्ली की बसों, चलती कारों, मेट्रो, और कैम्पसों
और यहाँ तक की संसद से भी डर लगने लगा है मेरी बेटी
सुनते हैं की दिल्ली के भेड़िये अब दिन के उजालों में भी शहर में घुस आते हैं
चलती कारों, बसों या किसी भी जगह को ये बिस्तरों में तब्दील कर देते हैं
वे लोहा लेकर शिकार को उतरते हैं
और सिखाते हैं मादाओं को मुक्ति और स्वतंत्रता को सहने का पाठ
और जिस्मों पर वे उन हथियारों से करते हैं वार
जिनका जिक्र पेनल कोड और संविधानों में कहीं नहीं है
और विडंबना देखो की पेट से खून की शिराएँ तक निकाल लेने वाले वे भेड़िये
अंत में बेदाग़ बरी हो जाते हैं
और चौसठ योगिनियों के मंदिर की भोंडी अनुकृति
वह संसद
करती रहती है, करती रहती है
जाति और मजहब पर बहसें

यह सब देख मुझे लगता है
कि तुम्हे दिल्ली भेजना
किसी इंद्रजाल में तुम्हे फंसाने जैसा है मेरी बच्ची

और इसीलिए इधर कुछ दिनों मैंने यह भी सोचा
कि तुम्हे देश से बाहर कहीं भेज दूं
उधर, उत्तरी गोलार्ध की पश्चिमी हवाओं में
जैसे की मध्य पूर्व
जहाँ कुरआन की आयतें और इस्लाम की शांति है
खुदा की निगाहबानी में
गुनाहगारों का साया भी
शायद तुम्हारे नजदीक न आ पाए

पर उन खजूरी रेगिस्तानों में आजकल
यह न जाने क्या पागलपन चल रहा हैं मेरी बच्ची ?
नौनिहालों के हाथों से बरस रही हैं एके-४७ की गोलियां
आत्मघाती बमों से सिसक रही है रेत
जंजीरों में बाँध बाजारों में बिक रही हैं सुंदर देह
और फिर उन्हें चींथा जा रहा है
अमेरिका और रूस से बदले के नाम पर

मैं सहम रहा हूँ मेरी बेटी
तुम्हे जिहाद के रैम्प पर क्या कैटवाकर बनाना है मुझे ?
या धरती की बहत्तर हूरों में से एक बनता तुम्हे देखता रहूँ मैं ?

नहीं मेरी बेटी
तुम्हे वहां भी भेजना दरअसल तुम्हे जिन्दा मार देना है
क्योंकि खुदा वहां किसी आत्मघाती हमले में जमींदोज हो चुका है
और पवित्र कुरआन की आयतें
धमाकों के बीच
मृतपाय मनुष्यता के शोक गीत गा रही हैं

खोजते-खोजते अब थक गया हूँ मेरी बच्ची
लगता है कोई शहर,कोई देश
अब नहीं बचा
कि जहाँ मैं तुम्हे भेज सकूँ
उड़ने को
बढ़ने को
चाहे दिल्ली हो या मद्रास
चाहे अमेरिका हो या फ़्रांस

तुम्हे एक हरी धरती
और एक साफ़ आसमान देने में
तुम्हारा यह पिता शायद अक्षम है

पर हाँ,
एक सम्भावना अब भी बची है मेरी बच्ची
भले ही थोड़ी सी ही
पर अभी भी शायद एक जगह
हमेशा की ही तरह
आदमी से बची रह गयी है
और वह है- गर्भ
तुम्हारी माँ का
सजल और स्निग्ध

अच्छा होगा कि लौट जाओ मेरी बच्ची
उसी अँधेरी कोख में
लौट जाओ मेरी तितली
उसी हिरण्यगर्भ में
लौट जाओ मेरी आत्मजा
सृष्टि के उसी अधिष्ठान में
जहाँ की पवित्र शांति में
तुम्हारी प्राण-नाल जुडी है
तुम्हारी माँ के पेट से
ह्रदय से
मन से

लौट जाओ बेटी
स्वतंत्रता और गरिमा के उसी निर्जन में
जहाँ आदमी
उसका समाज
उसका धर्म
उसकी आसमानी किताबें
और उसके खुदा भी पहुँच नहीं सकते
कभी भी नहीं पहुँच सकते


लौट जाओ मेरी बेटी
कि यहाँ धर्म,धर्म नहीं,अनाचार है
न्याय,न्याय नहीं, बलात्कार है
खुदा, खुदा नहीं
धरती पर होता हुआ सनातन व्यभिचार है

लौट जाओ मेरी बेटी
कि पिता, अब पिता नहीं
एक नीरीह कविता है
और कविता, कविता नहीं
बस, एक बेबस तर्पण है-


ॐ, न तातो न माता न बन्धु: न दाता |
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ||
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव |
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ||
(चर्चित अभिनेत्री दीप्ती नवल की एक तस्वीर)



ऋतुसंहार
_______________

उसने जब कहा
कि कल किसी और के साथ
वह रतिरत हुई
तो मुझे लगा
कि मेरी दुनिया ही भष्म हो गई
दरअसल वह दूसरा आदमी
जो आभास में ज्योतिर्लिंग था
एक मौखिक अभिसार के बाद
उसके भीतर
गहरे समाहित होने की अपनी बेचैनी को
ऋतु आने तक
रोक न सका था
और उसने
इस अप्रत्याशित पर साहसिक मंथन को
केवल हमारे प्रेम की बिना पर
न होने देने को
अमानवीय-सा समझा था.
(बी.एच.यू. के दृश्य कला विभाग में लगी एक तस्वीर)


प्रेमेतर

इतर प्रेम कोई पाप नहीं है
चाह भरे दिल में
उसका पलना
केवल दैहिक ताप नहीं है

गलत नहीं उस खिड़की को गह लेना
जो घरनी की सूनी आँख बनी हो
नहीं बेतुका वहां बैठना
जहाँ ठिठक कर बैठि दिखे
प्रियतमा कोई उदास

वह सब पुनीत है
जितना इनमें बचा हुआ है प्रेय
होने को दाह

नहीं बुरा है वह चौर्य-भाव
जब खोजे कोई
उनके तन में
उनके मन में
यदि बची हुई हो
कहीं भी कोई राह

भले ही उस पर छाप पड़ी हो अन्य राग की
या फिर जो ना चली गई हो

उतर कर उन राहों पर चलना
किसी किनारे हौले से
उस रस को भर लेना
भर देना
नहीं नारकीय अघ जैसा
ना शाप देव का
ना क्रोध ऋषि का
ना शब्द विरोधी मंत्र विरोधी
ना ही ऐसा कुछ है उसमें
जो हो शास्त्र-असम्मत लोक-असम्मत

मत पूछो आसमानों से
प्रेम कोई अजपा जाप नहीं है.

(चर्चित कवि - चित्रकार कुंवर रवींद्र दा की तस्वीर)


अनप्तकामिनी
____________
डूब जाओ
कितना ! ये मत पूछो
बस जितना हो
और समझते हो
तथा समझाए गए हो
वो सब मिलाकर
डूब जाओ

पर ये मत समझना
कि बस उतनी भर जगह है मुझमें
डूबने की
जगहें और भी हैं
उनके अलावें
जो तुम्हें डूबने लायक लगती हैं
लगती रही हैं

सदियों से जिनमें डूबने की
बस आदत है तुम्हे

जबकि वे जगहें
जिनमें आज तक तुम डूबने से बचते रहे
और भी ज्यादे गहरी हैं
तरल हैं
कुंवारी हैं
पर उन तक तुम कभी आये नहीं
आते ही नहीं
डूबते ही नहीं !

सच सच बताना
आसमानों से अब तक भी डरते ही हो क्या ?

देखो !
तुम उन जगहों में किसी और तरह से भी
डूब सकते हो
जैसे कि हवा बनकर
या बादल
या पानी
या बस एक नन्हीं तितली बनकर
जो कि दूसरी जगहों पर तुम बनते हो
पर मेरी इन जगहों पर पता नहीं क्यों ?

कैसे बताऊँ तुम्हें
कि सदियों से बची हुई हैं
सुलगतीं न जाने कितनी योनियाँ मुझमें
तुम्हारे पानियों की चाह में
पर जिन्हें न देख पाए तुम
और ना ही छू सके

तुम सुन तो रहे हो ना ?
क्या डूबना चाहोगे उनमें !
बेशर्म, बेगुनाह, बेवक्त
बिना कुछ खोले
बिना कुछ उतारे
बिना कुछ डाले
बिना कुछ तोड़े
बिना कुछ झिझोंड़े
पौरुषहीन, मंथनहीन
निस्पंद, निःश्वास, लगातार  

आह ! कि बस एक बार !!

इन्हें यदि देख सकते तुम
मुकम्मल छू भी सकते तुम
निकलकर स्वयं से
आपादमस्तक
डूब सकते तुम

फ़कत एक आदमी बनकर

(कुंवर दा की तस्वीर)




( कवि परिचय )

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के वेदपुर (मांडा) गाँव में जन्म  | उच्च शिक्षा भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू, नई दिल्ली से | कुछ दिनों केंद्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान,लेह,लद्दाख में अध्यापन कार्य | 2006 से, बीएचयू,वाराणसी के डीएवी कॉलेज के हिंदी विभाग में अध्यापक एवं अध्यक्ष |

छात्र आंदोलनों में सक्रियता | हिंदी की शीर्षस्थ पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित | रामचरितमानस की औपनिवेशिक, कथावाचकीय और तथाकथित प्रगतिशील व्याख्याओं से मुठभेड़ एवं उसके सटीक अर्थायन का निरंतर प्रयास | कहानी ‘ज्ञानक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे’ एवं ‘मसान भैरवी’ को विशेष लोकप्रियता मिली तथा नाट्य रूप में मंचित भी हुईं | कथा भाषा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय शोध कार्य |

प्रकाशन:
आलोचना-ग्रन्थ- ‘निर्मल वर्मा की कथा भाषा’ (2012), ‘साहित्य की आत्म-सत्ता’(2015),
कविता-संग्रह- ‘पत्थरों के दिल में’(2016)
पुरष्कार/सम्मान: आलोचना का पहला ‘सीताराम शाष्त्री सम्मान-2016’

सम्प्रति: अध्यक्ष,हिंदी विभाग, डीएवी पीजी कॉलेज (बीएचयू), औसानगंज, वाराणसी-1

Email: sarveshsingh75@gmail.com
Mob: 9415435154

ज्योति की कवितायेँ

आज 'ज्योति तिवारी' की कुछ कवितायेँ साझा कर रहा हूँ । ज्योति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की युवा रचनात्मकता की नयी पौध हैं । इनकी कविताओं में स्त्री स्वर बहुत ही सूक्ष्मता से अभिव्यक्त हुआ है । ज्योति ने बहुत ही कम समय में हिंदी कविता के रकबे में प्रवेश कर अपनी मुकम्मल पहचान बनाई है । इस ब्लॉग पर उनके लेखनी का स्वागत है । ज़ाहिर बात है वे नियमित यहाँ आवाजाही करेंगी । उनके निरंतर रचनारत जीवन की मंगलकामनाओं के साथ उनकी कुछ कवितायेँ...(मॉडरेटर)

ज्योति तिवारी

वह दूसरी औरत.....

वह दूसरी औरत
लूटा देती है
अपनी सारी उम्मीद
भरोसा,संवेदना और प्यार
अपने प्रेमी पर।
बावजूद की छुपा दी जाती है
उसकी पहचान
बेइज्जती के डर से।
हकदार है उसका प्रेमी
सेक्स व शरीर का
बावजूद की शून्य है वह
प्रेमी की जिन्दगी में।
नहीं देखा किसी ने उसे
घूमते,शॉपिंग करते
या प्रेमी के कंधे पर सिर रख
घंटो बतियाते...
किसी पार्क के कोने में।
नहीं चाहा उसने 
प्रेमी से इतना समय कि
बाधित हो प्रेमी की स्वतंत्रता।
मिटे ना उसका खुद का वजूद
इसलिए नहीं रखी इच्छा की
जुडा रहे उसके नाम के साथ
प्रेमी का नाम।
अब ढुलका देती है वह
अपना अपमान व गुस्सा
अपनी कविता में
क्योंकि नहीं खोलती वह
भाँवों की गांठे
प्रेमी के आगे।
फाडती है वह
डायरी के पन्ने
जिसपर लिखा होता है
प्रेमी का नाम
बना होता है दिल का चित्र।
उसके कमरे में मिलती है
खूब सारी चबायी रिफील
फैली स्याही व कागज के टुकडे।
जिनके बीच उसकी पनियाली आंखें
ढूंढती मिलती है
प्रेमी की मजबूत,कठोर छाती।
जिसमें मुंह गडा वह फफक सके
और कह सके कि
अब बन भी जाओ तुम
मेरी डायरी,मेरी कविता
मेरी भाषा,भाव व शब्द
ताकि इन्हें जीने की चाह में
तुम्हें जीना जारी रखूं।


 अधेड प्रेमिका....

अधेड प्रेमिका थी वह
एक नौजवान की।
जैसे गौरैया का प्रेमी
मेरे गांव का बूढा बरगद।
उनका साथ कुछ यूं था
जैसे खंडहर में उगा
कोई शिशु पीपल।
वह बेहद खूबसूरत होती
जब प्रेमी के साथ होती
जैसे प्रिय पुराने दुपट्टे पर
लगा नया गोटा।
बोझिल था उसका चेहरा
उम्र की परछाइयों से
फिर भी आंखों में
प्रेमिल जुगूनुओं की
टिमटिमाहट थी।
प्रेमी के मुलायम स्पर्श की गवाह थी
उसकी खुरदुरी हथेलियां।
थिरकता था उसके घर का हर कोना
प्रेम के जादुई पदचाप से।
उसकी मुस्कान वजनदार थी
क्योंकि मालकिन थी वह
रंगीनियत के खजाने की।
थोडा प्यार,थोडी ममता
थोडा सौन्दर्य,थोडी नाजुकता
भरी हुई थी उसके भीतर।
आदर्श तालमेल था
नवीनता और पुरातनता के मध्य
इसलिए उनका साथ
एक खरा आईना था
अतीत और भविष्य का।

लगाव...

लगाव है तुम्हें मेरे शरीर से
और मुझे तुमसे।
महसूसते हो तुम
मेरी देह की गंध
और मैं तुम्हारी
आत्मा की तृप्ति।
करते हो तुम याद मुझे
सिर्फ स्वाद के लिए
और बिछ जाती हूँ मैं
तुम्हारे लिए।
इस डर से कि निकल ना जाओ तुम
तलाश में किसी नये स्वाद के।
बैठकर करती हूँ तुमसे बातें
सिर्फ सपनों में
जानते हुए कि
नहीं बनते कुछ सपने हकीकत।
चिन्ता है मुझे तुम्हारे सुख की
और ख्याल है तुम्हें अपने सुख का।
प्यार ज्यादा होगा जब देह सुन्दर हो
फलसफा है यह तुम्हारा
इसलिए करती हूँ मैं पूरी कोशिश
खूबसूरत दिखने की।
छोड जाते हो तुम मेरे कमरे में
चाय का एक खाली प्याला
बुझी सिगरेट के टुकडे,राख
और चुभता हुआ खालीपन।
मुस्कराते हैं मुझे देख
वे बडी निर्दयता से।
मेरे कानों तक आती है
उनकी चीखती फुसफुसाहट
कि मैं भी खाली प्याला
बुझी राख और
खालीपन का किस्सा हूँ
बिल्कुल उनकी तरह।



द्वन्द्व......

चलते हुए अजनबी भीड के बीच
रास्ते में मिलती है मुझे
घोडागाडियां लादे हुए बोझ
अपने मालिक की उम्मीदों का।
अलसाये हुए से छुट्टा साँडो का झुन्ड
लगभग बेपरवाह....।
मंदिर से आती घंटियों की आवाज
धक्कामुक्की करते लोगों का हुजूम।
दिखता है मुझे एक अजनबी सा रास्ता
जिसका अन्त एक गहरी उदासी से घिरा
नदी का सूना किनारा है।
जहाँ बैठ मैं स्वयं को
नदी से जोडने की
चेष्टा करती हूँ असफल।
पाती हूँ मैं कि
नदी की मछलियां साझेदार है
मेरी उदासी में।
नदी के ऊपर मंडराते पंक्षी
भावनायें है मेरी।
नदी में बहती वह दुर्गन्धित लाश
बोध कराती है मेरे होने का
और इस होने का बोध
उतार देता है मुझे बीच नदी में।
जहाँ धारायें गुजरती हैं मेरे ऊपर से
मैं स्वयं को खोजने और
सम्भालने के द्वन्द्व के बीच
डूबती जाती हूँ
गहरे,बहुत गहरे।

कवि परिचय : ज्योति तिवारी
सम्प्रति : फ़िलहाल कुल व्यक्ति कवि
छात्रा हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

कवि तस्वीर से इतर अभी तस्वीरें चर्चित कवि- चित्रकार कुंवर रविन्द्र दा की है । 

Monday 19 December 2016

अंडमान वाया बनारस : श्रीप्रकाश शुक्ल के यात्रा संस्मरण के बहाने


अंडमान वाया बनारस
“यात्रायें यात्री को निःशब्द कर देती हैं किन्तु उनके समापन पर वो कहानीकार बन जाता है”- इब्न बतूता”  
         
ऐसी ही कहानी है ‘अंडे से अंडमान’ l यह यात्रा संस्मरण चर्चित कवि श्रीप्रकाश शुक्ल का है,जो ‘नया ज्ञानोदय’ के दिसंबर अंक में प्रकाशित है l यात्रायें हमारे मिजाज़ को एक नए तरीके से परिष्कृत करती है l यह हमारे मनोजगत के भावों को बदल देती हैं l कई बार यात्राएँ हमारी बनी बनायी अवधारणाओं को आद्यांत बदल देती हैं l उद्विग्न कवि मन को कविता से ज्यादा उसका भूगोल और इतिहास चुनौती देता है l अगर यात्राएँ मानसिक सुकून और मौज मस्ती का कारण हैं तो यही यात्राएँ कभी नहीं समाप्त होने वाली बेचैनी में भी तब्दील हो जाती हैं l यात्रा वृत्त हमारे समय और समाज के जीवंत दस्तावेज़ होते हैं l कवि श्रीप्रकाश शुक्ल ऐतिहासिकता के साथ अपने भौगोलिकता को रेखांकित करने वाले कवि हैं l ऐसे में उनके संस्मरणों में इतिहास और भूगोल की अनुगूंजें स्वाभाविक हैं l कवि मन का संघर्ष उसके समय और समाज का संघर्ष भी होता है l बात अंडमान की हो तो अनायास ही मानवीय त्रासदी, साम्राज्यवादी शोषण, गुलामी की पशुवत जीवन के चित्र अंकित होने लगते हैं l अंडमान न केवल भारत बल्कि मनुष्य के स्वतन्त्र होने की जद्दोजहद के संघर्ष की कहानी कहता है l ऐसे दास्तानगोई  अंडमान में एक संवेदन कवि ह्रदय का प्रवेश और उसका वर्णन ‘अंडे से अंडमान’ में होता है l समकालीन कविता ने गद्य के घरौंदे में सेंध लगाई है l यह कोई नयी बात नहीं बल्कि पुरातन परम्परा से आयातित है l जिसे महाकाव्यों में देखा जा सकता है l समकालीन कविता से सम्बंधित व्यक्ति गद्य लिखेगा तो वह कवित्वपूर्ण होगा ही l ‘अंडे से अंडमान’ की खासियत उसके कथा प्रवाह में कवित्व का समायोजन है l  संस्मरण का पहला हिस्सा यात्रा पर  निकलने की कवि की तैयारी है l ‘यात्रा में घर’ उपशीर्षक में कविमन की घबराहट घर को लेकर है l इसमें वो घर पर एक कविता लिखते हैं l  घर को लेकर ‘चर्चित कवि विनोद कुमार शुक्ल’ की कविता और कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता दोनों घर को देखने की बेचैनी और घरवापसी से सम्बंधित है l यह घरवापसी आज के सन्दर्भों से अलग घर के रूमानियत से जुड़ती है l देखने और झांकने की क्रियाएं इन कविताओं में मौजूद है l दोनों कविताओं से गुजरें-
“दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समंदर पार चले जाना चहिये
जाते जाते पलटकर देखना चाहिए
दूसरे देश से अपना देश
अंतरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की याद
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में कोई भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा

घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ l”
(विनोद कुमार शुक्ल, दूर से अपना घर देखना चाहिए)
और
                        “जब घर पर होते हैं
                        जब घर से बाहर निकलते का मन करता है
                        जब घर से बाहर निकलते हैं  
घर लौटने को मचल उठते हैं
घर के भीतर ही हमारी दुनिया है
और हम समझते हैं हम घर से दूर हैं
और बहुत बाहर भी
दूरी असल में कुछ नहीं होती
सिवाय इसके की हम घर के बाहर से घर के भीतर झाँकतें हैं
और बेचैन हो उठते हैं l”
(श्रीप्रकाश शुक्ल, अंडे से अंडमान संस्मरण से)







देखना समग्रता को व्यक्त करता है लेकिन झांकना बालसुलभ क्रिया है l जहाँ घर को लेकर एक मनुहार है l एक खिलंदड चाह l विनोद कुमार शुक्ल के घर को देखने में अंतरिक्ष की भव्यता है और पृथ्वी की विशालता, लेकिन श्रीप्रकाश शुक्ल का घर उनकी दुनिया है जहाँ जीने की न्यूनतम सामग्री है l घर उनके लिए स्मृति है l घर से दूर भी उनका घर उनके साथ है l ‘यात्रा में घर’ को पढने से पता चलता है कि यात्रा संस्मरणकार यात्रा में जाने से पहले कितनी तैयारी करते हैं चाहे वह मानसिक स्तर पर हो अथवा उसके ऐतिहासिक, भौगोलिक या साहित्यिक पक्ष को समेटने के स्तर पर l वे लिखते हैं- “यूँ तो इस कालापानी की यात्रा की तैयारी जून में ही कर ली थी , लेकिन जैसे-जैसे २० अक्टूबर का समय नजदीक आ रहा था,पत्नी और बच्चों की तैयारी हेतु कपडा इत्यादि की अपेक्षित हलचल बढ़ने लगी थी, जबकि मैं इस जगह से जुड़ी पुस्तकों को खरीदने में या पढने में व्यस्त था l”३ 
काला पानी का उजला सच
यात्रा संस्मरण का अगला हिस्सा ‘काला पानी का उजला सच’ है l इस हिस्से में कवि जीने और जानने के द्वंद्व के बीच की यात्रा करता है l वे लिखते हैं-
                        काला पानी काला पानी
                        बोल करियवा कैसा पानी
                        बाबा बोलें मन भर पानी
                        देख फिरंगिया उजला पानी !
इस खंड में यात्रा संस्मरणकार सेलुलर जेल की त्रासदियों का चित्रण करते हैं l “सेलुलर जेल में बंद कैदियों के तेल पेरने, नारियल के रेशे से रस्सी बनाने, हथौड़ा चलाने और पीठ पर मर्मान्तक कोड़ों के पड़ने की आवाज आ रही थी l बाहर से शांत मेरा मन भीतर से बहुत विचलित हो रहा था और सत्ता की क्रूरता व नेताओं के बयानों से मेरा मन बहुत आक्रोशित हो रहा था l” इसी हिस्से में लेखक अपने समय और समाज के वर्तमान को भी रेखांकित करते हैं l ग़ालिब के सुर में सुर मिलाते हुए वे आज के सत्तासीनों से पूछते हैं-
                        तेरी वफ़ा से क्या हो लताफी की दहर में
                        तेरी सिवा भी हमपे बहुत से सितम हुए l
सेलुलर जेल की यातना और चीखों को वे अपनी कविताओं में दर्ज करते हैं l इन कविताओं में कराहते पुरखों की आह और उनके आँखों में शांत समुद्र का हाहाकार और जिद अभिव्यक्त होता है l यह जिद अपने माटी के लिए था l यही वह माटी थी जिसने उन्हें अमानवीयता के क्रूरतम क्षणों में भी जीवित किये हुए थी l
                        ‘यातना एक ज़िद है
                        जो यातना में होता है वह बहुत ज़िद्दी होता है
                        जैसे की हमारे पुरखे
                        जिनकी जिद ही उन असंख्य घावों के लिए मरहम थी
                        तो तब मिले थे जब वे
                        काला पानी की काल कोठरी से अपनी माटी को पुकार रहे थे l”
इस खंड में यात्रा संस्मारणकार बेहद वर्णनात्मक हो गये हैं l यह वर्णन उनकी बेटी दर्शिता के प्रश्नों के फलस्वरूप हुआ है l इस कथा की सूत्रधार दर्शिता है l वह अपने प्रश्नों से कथा को एक गति प्रदान करती है l यात्रा संस्मरण में यह वर्णन बोझिल नहीं बल्कि उस यात्रा की ऐतिहासिकता और तमाम सूचनात्मक जानकारी के सम्पूर्ण है l यह वर्णात्मकता कथा प्रवाह को बनाये रखती है l इस वर्णन में आख्यान है और कवि की अपनी व्याख्याएं, जिसके माध्यम से कवि  उस जगह को समझता है l उसके अपने इंटरपटेशन हैं l जिसमें यथार्थ भी है और गल्प भी l यहाँ पाठक का दायित्व बढ़ जाता है कि इसमें उसको क्या लेना है l यथार्थ और गल्प का यह मेल ‘ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान’ का सहमेल है l
‘सेल का सानिध्य’  में सेलुलर जेल की यातना अभिव्यक्त हुई है l असल में अंडमान का इतिहास सेलुलर जेल का इतिहास है और इस जेल का इतिहास भारतीय क्रांतिकारियों के जज़्बे का इतिहास है l इसी लिए इस जेल के कैदी और वीर सावरकर के बड़े भई गणेश सावरकर अपनी एक कविता में इसे महातीर्थ कहते हैं l
                        “यह तीर्थ महातीर्थों का है
                        मत कहो इसे काला पानी
                        तुम सुनो यहाँ की धरती की
                        कण कण से गाथा बलिदानी l”
इसमें कवि जेल के कैदी भान सिंह से मिलने का बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है l यह है तो गप्प लेकिन जेलर बेरी की यातना को यह बहुत सूक्ष्मता से दिखाता है l
                        “मुझेदेखो मैं ही हूँ भान सिंह...यही है मेरी सेल जहाँ कैद कर मुझे जेलर बेरी ने इतना मारा कि पानी भी नहीं मांग सका !”
            ‘हवा में हैवलोक’  में समुद्र के समुद्रपन का रेखांकन है l ‘विरासत में बाराटांग’ जारवा के रिश्तों को समझने और जारवा के जीवन के मिथकों को समझने के लिए ‘जारवा लेकिन हमारे जैसे हैं !’ को पढ़ा जाना चाहिए l इस खंड में भारत सरकार के आजतक के विकास कार्यों की झलक भी देख सकते हैं l ‘अंडे से अंडमान’ का यह यात्रा संस्मरण रोचक और जानकारी की दृष्टि से समृद्ध है l इसे पढ़ा जाना चाहिए l यात्रा संस्मरण कई बार हमें मानसिक यात्रायें कराते हैं l इस संस्मरण के माध्यम से हम ना केवल अंडमान की यात्रा करते हैं बल्कि कवि की आँखों से उसकी संवेदना को समझते भी है l अंडमान को समझना ‘अपने पुरखों की जमीन का पथिक’ होना है l अन्ततः रचनाकार अपनी परम्पराओं के प्रति कृतज्ञ होते हैं l ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ के मूल्य पर कवि इस यात्रा संस्मरण का पटाक्षेप करते हैं अगली यात्रा की तैयारी के उम्मीद में l
                        “दुनिया भर के संतुलन को बचाने वाले ऐ जल पुरुष !
                        अपने संततियों की हर लुटेरों से रक्षा करना
                        और उन सभी विकास मान प्राणियों का मान रखना
                        जो आदिम असभ्यता में
                        तुम्हारे नरक की गरमी से
                        सभ्य होते गए हैं !”  
 अंत में अपनी ओर से यह यात्रा संस्मरण पढने में गद्य से ज्यादा कविता सा रस प्रदान करता है l कवि श्रीप्रकाश शुक्ल की खासियत है कि उनका गद्य भी कवित्वपूर्ण होता है l परम्परा और आधुनिकता का सहमेल उनकी कविताओं के अलावा उनके विचार, आलोचना और जीवन में भी आता है जिसे सहज ही यहाँ देखा जा सकता है l यह संस्मरण आपके अंडमान यात्रा को एक नया आयाम दे इसी कामना के साथ कवि की ओर से ग़ालिब के शेर से इस टिप्पणी का समापन कर रहा हूँ l
                        तोड़ बैठे जबकि हम जामो-सुबू फिर हमको क्या
आसमां से बादा-ए-गुलफ़ाम गो बरसा करे l  
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सन्दर्भ ग्रन्थ
१.     शुक्ल विनोद कुमार, प्रतिनिधि कविताएँ , पृष्ठ संख्या- ४८, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
२.     शुक्ल श्रीप्रकाश, अंडे से अंडमान, नया ज्ञानोदय, दिसंबर २०१६, पृष्ठ संख्या- २२, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
३.     शुक्ल श्रीप्रकाश, अंडे से अंडमान, नया ज्ञानोदय, दिसंबर २०१६, पृष्ठ संख्या- २३, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
४.     शुक्ल श्रीप्रकाश, अंडे से अंडमान, नया ज्ञानोदय, दिसंबर २०१६, पृष्ठ संख्या- २३, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
५.     शुक्ल श्रीप्रकाश, अंडे से अंडमान, नया ज्ञानोदय, दिसंबर २०१६, पृष्ठ संख्या- २४, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
६.     शुक्ल श्रीप्रकाश, अंडे से अंडमान, नया ज्ञानोदय, दिसंबर २०१६, पृष्ठ संख्या- ३१, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
७.     शुक्ल श्रीप्रकाश, अंडे से अंडमान, नया ज्ञानोदय, दिसंबर २०१६, पृष्ठ संख्या- ३३, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
८.     शुक्ल श्रीप्रकाश, अंडे से अंडमान, नया ज्ञानोदय, दिसंबर २०१६, पृष्ठ संख्या- ४२, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
९.     ग़ालिब, मिर्ज़ा असदुल्लाह खां, दीवान-ए-ग़ालिब, पृष्ठ संख्या- ११३, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली