अब जब मैंने अपने ब्लॉग को नियमित करने की कोशिश में लगा हूँ, तब कोशिश करूँगा कि कुछ सर्जनात्मक चीजें यहाँ आप सभी से साझा करूँ l आपसे संवाद एकतरफा ना हो इस वजह से आप की उपस्थिति भी आवश्यक है l आज यहाँ बनारस के युवा कवि, कहानीकार, आलोचक और बहुत जल्द ही उपन्यासकार सर्वेश सिंह की कुछ कवितायें साझा कर रहा हूँ l इस उम्मीद में कि वे जल्द ही अपने सद्यःप्रकाशित उपन्यास और आलोचना के आलेख भी यहाँ उपलब्ध कराएँगे l युवा कवि सर्वेश सिंह बनारस के 'मसान के अघोरी परम्परा के नाथ कवि' हैं l भाषा में निर्मलीय निर्मलत्व लिए हुए एवं जीवन और मिजाज़ में बनारसी कवि की यह कविता संभवतः आपको पसंद आये l (मॉडरेटर)
लौट जाओ बेटी
गुरुत्त्व था तुम्हारा बचपन
इस घर के लिए
हाथों से पकड़ जिसे
घूम लिया पृथ्वी और आकाश
पर लपेट हर बार तुमने खींच लिया
अपने मोंह के परेते में
लेकिन घर जीवन की हद नहीं है मेरी बेटी
और इसीलिए अब जबकि तुम बड़ी हो गयी हो
तो मैं चाहता हूँ की तुम्हें दूं
एक लम्बी हरी धरती
और एक असीम खुला आसमान
बढ़ने के लिए
उड़ने के लिए
पर दुविधा में हूँ
कि तुम्हे भेजूं कहाँ मेरी बच्ची ?
देखता हूँ इस शहर में हैं कड़कड़ाती हड्डियों सी सड़कें
और आवारा सांड से चौराहे
मोक्ष की इस नगरी में
स्वर्ग को जाता हर रास्ता
बजबजाते कीच और फूलमालाओं के लोथड़ों से होकर गुजरता है
मुक्ति की चाहना को किसी की आँख में देखते ही
यहाँ ईश्वर के दूतों की देह में उग आते हैं खूनी पंजे
और वे शरीर ही नहीं
आत्मा को भी नंगी कर
अपनी धार्मिक वासना की प्यास खोज लेते हैं
पत्थरों की बिसात पर खुरची गई हर सुकुमार देह को देख
मैं सिहर उठता हूँ मेरी बच्ची
हालाँकि हो सकता है की इन रास्तों से बच बचाकर
तुम अपनी मरजाद लेकर निकल भी आओ
पर इसी शहर की उन उन्मादी रातों को कैसे भूल जाऊं
जिनमें आदमी, भेड़ियों में तब्दील हो जाता है
और मासूम बच्चियों तक को दबोच कर
गंगा की तलहटी में विलीन हो जाता है
कहते हैं की वे भेडिए उन तलहटियों में
उन बच्चियों की हड्डियों से भी मिटा लेते हैं
अपनी जीभ और उँगलियों की तृष्णा
और फिर उन्हें उसी गंगा में बहा देते हैं.
फिर सुबह उन्ही पानियों में नहाकर
लोग स्वर्ग के रास्तों पर बढ़ जाते हैं
मंदिरों का यह शहर मुझे मुफीद नहीं लगता तुम्हारे लिए बेटी
तो क्या तुम्हे राजधानी दिल्ली भेज दूं ?
जहाँ डीयू और जेएनयू हैं !!
यह ख़याल अक्सर मुझे उत्साहित करता है बेटी
पर इधर दिल्ली की बसों, चलती कारों, मेट्रो, और कैम्पसों
और यहाँ तक की संसद से भी डर लगने लगा है मेरी बेटी
सुनते हैं की दिल्ली के भेड़िये अब दिन के उजालों में भी शहर में घुस आते हैं
चलती कारों, बसों या किसी भी जगह को ये बिस्तरों में तब्दील कर देते हैं
वे लोहा लेकर शिकार को उतरते हैं
और सिखाते हैं मादाओं को मुक्ति और स्वतंत्रता को सहने का पाठ
और जिस्मों पर वे उन हथियारों से करते हैं वार
जिनका जिक्र पेनल कोड और संविधानों में कहीं नहीं है
और विडंबना देखो की पेट से खून की शिराएँ तक निकाल लेने वाले वे भेड़िये
अंत में बेदाग़ बरी हो जाते हैं
और चौसठ योगिनियों के मंदिर की भोंडी अनुकृति
वह संसद
करती रहती है, करती रहती है
जाति और मजहब पर बहसें
यह सब देख मुझे लगता है
कि तुम्हे दिल्ली भेजना
किसी इंद्रजाल में तुम्हे फंसाने जैसा है मेरी बच्ची
और इसीलिए इधर कुछ दिनों मैंने यह भी सोचा
कि तुम्हे देश से बाहर कहीं भेज दूं
उधर, उत्तरी गोलार्ध की पश्चिमी हवाओं में
जैसे की मध्य पूर्व
जहाँ कुरआन की आयतें और इस्लाम की शांति है
खुदा की निगाहबानी में
गुनाहगारों का साया भी
शायद तुम्हारे नजदीक न आ पाए
पर उन खजूरी रेगिस्तानों में आजकल
यह न जाने क्या पागलपन चल रहा हैं मेरी बच्ची ?
नौनिहालों के हाथों से बरस रही हैं एके-४७ की गोलियां
आत्मघाती बमों से सिसक रही है रेत
जंजीरों में बाँध बाजारों में बिक रही हैं सुंदर देह
और फिर उन्हें चींथा जा रहा है
अमेरिका और रूस से बदले के नाम पर
मैं सहम रहा हूँ मेरी बेटी
तुम्हे जिहाद के रैम्प पर क्या कैटवाकर बनाना है मुझे ?
या धरती की बहत्तर हूरों में से एक बनता तुम्हे देखता रहूँ मैं ?
नहीं मेरी बेटी
तुम्हे वहां भी भेजना दरअसल तुम्हे जिन्दा मार देना है
क्योंकि खुदा वहां किसी आत्मघाती हमले में जमींदोज हो चुका है
और पवित्र कुरआन की आयतें
धमाकों के बीच
मृतपाय मनुष्यता के शोक गीत गा रही हैं
खोजते-खोजते अब थक गया हूँ मेरी बच्ची
लगता है कोई शहर,कोई देश
अब नहीं बचा
कि जहाँ मैं तुम्हे भेज सकूँ
उड़ने को
बढ़ने को
चाहे दिल्ली हो या मद्रास
चाहे अमेरिका हो या फ़्रांस
तुम्हे एक हरी धरती
और एक साफ़ आसमान देने में
तुम्हारा यह पिता शायद अक्षम है
पर हाँ,
एक सम्भावना अब भी बची है मेरी बच्ची
भले ही थोड़ी सी ही
पर अभी भी शायद एक जगह
हमेशा की ही तरह
आदमी से बची रह गयी है
और वह है- गर्भ
तुम्हारी माँ का
सजल और स्निग्ध
अच्छा होगा कि लौट जाओ मेरी बच्ची
उसी अँधेरी कोख में
लौट जाओ मेरी तितली
उसी हिरण्यगर्भ में
लौट जाओ मेरी आत्मजा
सृष्टि के उसी अधिष्ठान में
जहाँ की पवित्र शांति में
तुम्हारी प्राण-नाल जुडी है
तुम्हारी माँ के पेट से
ह्रदय से
मन से
लौट जाओ बेटी
स्वतंत्रता और गरिमा के उसी निर्जन में
जहाँ आदमी
उसका समाज
उसका धर्म
उसकी आसमानी किताबें
और उसके खुदा भी पहुँच नहीं सकते
कभी भी नहीं पहुँच सकते
लौट जाओ मेरी बेटी
कि यहाँ धर्म,धर्म नहीं,अनाचार है
न्याय,न्याय नहीं, बलात्कार है
खुदा, खुदा नहीं
धरती पर होता हुआ सनातन व्यभिचार है
लौट जाओ मेरी बेटी
कि पिता, अब पिता नहीं
एक नीरीह कविता है
और कविता, कविता नहीं
बस, एक बेबस तर्पण है-
ॐ, न तातो न माता न बन्धु: न दाता |
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ||
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव |
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ||
ऋतुसंहार
_______________
उसने जब कहा
कि कल किसी और के साथ
वह रतिरत हुई
तो मुझे लगा
कि मेरी दुनिया ही भष्म हो गई
दरअसल वह दूसरा आदमी
जो आभास में ज्योतिर्लिंग था
एक मौखिक अभिसार के बाद
उसके भीतर
गहरे समाहित होने की अपनी बेचैनी को
ऋतु आने तक
रोक न सका था
और उसने
इस अप्रत्याशित पर साहसिक मंथन को
केवल हमारे प्रेम की बिना पर
न होने देने को
अमानवीय-सा समझा था.
प्रेमेतर
इतर प्रेम कोई पाप नहीं है
चाह भरे दिल में
उसका पलना
केवल दैहिक ताप नहीं है
गलत नहीं उस खिड़की को गह लेना
जो घरनी की सूनी आँख बनी हो
नहीं बेतुका वहां बैठना
जहाँ ठिठक कर बैठि दिखे
प्रियतमा कोई उदास
वह सब पुनीत है
जितना इनमें बचा हुआ है प्रेय
होने को दाह
नहीं बुरा है वह चौर्य-भाव
जब खोजे कोई
उनके तन में
उनके मन में
यदि बची हुई हो
कहीं भी कोई राह
भले ही उस पर छाप पड़ी हो अन्य राग की
या फिर जो ना चली गई हो
उतर कर उन राहों पर चलना
किसी किनारे हौले से
उस रस को भर लेना
भर देना
नहीं नारकीय अघ जैसा
ना शाप देव का
ना क्रोध ऋषि का
ना शब्द विरोधी मंत्र विरोधी
ना ही ऐसा कुछ है उसमें
जो हो शास्त्र-असम्मत लोक-असम्मत
मत पूछो आसमानों से
प्रेम कोई अजपा जाप नहीं है.
अनप्तकामिनी
____________
डूब जाओ
कितना ! ये मत पूछो
बस जितना हो
और समझते हो
तथा समझाए गए हो
वो सब मिलाकर
डूब जाओ
पर ये मत समझना
कि बस उतनी भर जगह है मुझमें
डूबने की
जगहें और भी हैं
उनके अलावें
जो तुम्हें डूबने लायक लगती हैं
लगती रही हैं
सदियों से जिनमें डूबने की
बस आदत है तुम्हे
जबकि वे जगहें
जिनमें आज तक तुम डूबने से बचते रहे
और भी ज्यादे गहरी हैं
तरल हैं
कुंवारी हैं
पर उन तक तुम कभी आये नहीं
आते ही नहीं
डूबते ही नहीं !
सच सच बताना
आसमानों से अब तक भी डरते ही हो क्या ?
देखो !
तुम उन जगहों में किसी और तरह से भी
डूब सकते हो
जैसे कि हवा बनकर
या बादल
या पानी
या बस एक नन्हीं तितली बनकर
जो कि दूसरी जगहों पर तुम बनते हो
पर मेरी इन जगहों पर पता नहीं क्यों ?
कैसे बताऊँ तुम्हें
कि सदियों से बची हुई हैं
सुलगतीं न जाने कितनी योनियाँ मुझमें
तुम्हारे पानियों की चाह में
पर जिन्हें न देख पाए तुम
और ना ही छू सके
तुम सुन तो रहे हो ना ?
क्या डूबना चाहोगे उनमें !
बेशर्म, बेगुनाह, बेवक्त
बिना कुछ खोले
बिना कुछ उतारे
बिना कुछ डाले
बिना कुछ तोड़े
बिना कुछ झिझोंड़े
पौरुषहीन, मंथनहीन
निस्पंद, निःश्वास, लगातार
आह ! कि बस एक बार !!
इन्हें यदि देख सकते तुम
मुकम्मल छू भी सकते तुम
निकलकर स्वयं से
आपादमस्तक
डूब सकते तुम
फ़कत एक आदमी बनकर
( कवि परिचय )
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के वेदपुर (मांडा) गाँव में जन्म | उच्च शिक्षा भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू, नई दिल्ली से | कुछ दिनों केंद्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान,लेह,लद्दाख में अध्यापन कार्य | 2006 से, बीएचयू,वाराणसी के डीएवी कॉलेज के हिंदी विभाग में अध्यापक एवं अध्यक्ष |
छात्र आंदोलनों में सक्रियता | हिंदी की शीर्षस्थ पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित | रामचरितमानस की औपनिवेशिक, कथावाचकीय और तथाकथित प्रगतिशील व्याख्याओं से मुठभेड़ एवं उसके सटीक अर्थायन का निरंतर प्रयास | कहानी ‘ज्ञानक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे’ एवं ‘मसान भैरवी’ को विशेष लोकप्रियता मिली तथा नाट्य रूप में मंचित भी हुईं | कथा भाषा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय शोध कार्य |
प्रकाशन:
आलोचना-ग्रन्थ- ‘निर्मल वर्मा की कथा भाषा’ (2012), ‘साहित्य की आत्म-सत्ता’(2015),
कविता-संग्रह- ‘पत्थरों के दिल में’(2016)
पुरष्कार/सम्मान: आलोचना का पहला ‘सीताराम शाष्त्री सम्मान-2016’
सम्प्रति: अध्यक्ष,हिंदी विभाग, डीएवी पीजी कॉलेज (बीएचयू), औसानगंज, वाराणसी-1
Email: sarveshsingh75@gmail.com
Mob: 9415435154
(सर्वेश सिंह)
लौट जाओ बेटी
गुरुत्त्व था तुम्हारा बचपन
इस घर के लिए
हाथों से पकड़ जिसे
घूम लिया पृथ्वी और आकाश
पर लपेट हर बार तुमने खींच लिया
अपने मोंह के परेते में
लेकिन घर जीवन की हद नहीं है मेरी बेटी
और इसीलिए अब जबकि तुम बड़ी हो गयी हो
तो मैं चाहता हूँ की तुम्हें दूं
एक लम्बी हरी धरती
और एक असीम खुला आसमान
बढ़ने के लिए
उड़ने के लिए
पर दुविधा में हूँ
कि तुम्हे भेजूं कहाँ मेरी बच्ची ?
देखता हूँ इस शहर में हैं कड़कड़ाती हड्डियों सी सड़कें
और आवारा सांड से चौराहे
मोक्ष की इस नगरी में
स्वर्ग को जाता हर रास्ता
बजबजाते कीच और फूलमालाओं के लोथड़ों से होकर गुजरता है
मुक्ति की चाहना को किसी की आँख में देखते ही
यहाँ ईश्वर के दूतों की देह में उग आते हैं खूनी पंजे
और वे शरीर ही नहीं
आत्मा को भी नंगी कर
अपनी धार्मिक वासना की प्यास खोज लेते हैं
पत्थरों की बिसात पर खुरची गई हर सुकुमार देह को देख
मैं सिहर उठता हूँ मेरी बच्ची
हालाँकि हो सकता है की इन रास्तों से बच बचाकर
तुम अपनी मरजाद लेकर निकल भी आओ
पर इसी शहर की उन उन्मादी रातों को कैसे भूल जाऊं
जिनमें आदमी, भेड़ियों में तब्दील हो जाता है
और मासूम बच्चियों तक को दबोच कर
गंगा की तलहटी में विलीन हो जाता है
कहते हैं की वे भेडिए उन तलहटियों में
उन बच्चियों की हड्डियों से भी मिटा लेते हैं
अपनी जीभ और उँगलियों की तृष्णा
और फिर उन्हें उसी गंगा में बहा देते हैं.
फिर सुबह उन्ही पानियों में नहाकर
लोग स्वर्ग के रास्तों पर बढ़ जाते हैं
मंदिरों का यह शहर मुझे मुफीद नहीं लगता तुम्हारे लिए बेटी
तो क्या तुम्हे राजधानी दिल्ली भेज दूं ?
जहाँ डीयू और जेएनयू हैं !!
यह ख़याल अक्सर मुझे उत्साहित करता है बेटी
पर इधर दिल्ली की बसों, चलती कारों, मेट्रो, और कैम्पसों
और यहाँ तक की संसद से भी डर लगने लगा है मेरी बेटी
सुनते हैं की दिल्ली के भेड़िये अब दिन के उजालों में भी शहर में घुस आते हैं
चलती कारों, बसों या किसी भी जगह को ये बिस्तरों में तब्दील कर देते हैं
वे लोहा लेकर शिकार को उतरते हैं
और सिखाते हैं मादाओं को मुक्ति और स्वतंत्रता को सहने का पाठ
और जिस्मों पर वे उन हथियारों से करते हैं वार
जिनका जिक्र पेनल कोड और संविधानों में कहीं नहीं है
और विडंबना देखो की पेट से खून की शिराएँ तक निकाल लेने वाले वे भेड़िये
अंत में बेदाग़ बरी हो जाते हैं
और चौसठ योगिनियों के मंदिर की भोंडी अनुकृति
वह संसद
करती रहती है, करती रहती है
जाति और मजहब पर बहसें
यह सब देख मुझे लगता है
कि तुम्हे दिल्ली भेजना
किसी इंद्रजाल में तुम्हे फंसाने जैसा है मेरी बच्ची
और इसीलिए इधर कुछ दिनों मैंने यह भी सोचा
कि तुम्हे देश से बाहर कहीं भेज दूं
उधर, उत्तरी गोलार्ध की पश्चिमी हवाओं में
जैसे की मध्य पूर्व
जहाँ कुरआन की आयतें और इस्लाम की शांति है
खुदा की निगाहबानी में
गुनाहगारों का साया भी
शायद तुम्हारे नजदीक न आ पाए
पर उन खजूरी रेगिस्तानों में आजकल
यह न जाने क्या पागलपन चल रहा हैं मेरी बच्ची ?
नौनिहालों के हाथों से बरस रही हैं एके-४७ की गोलियां
आत्मघाती बमों से सिसक रही है रेत
जंजीरों में बाँध बाजारों में बिक रही हैं सुंदर देह
और फिर उन्हें चींथा जा रहा है
अमेरिका और रूस से बदले के नाम पर
मैं सहम रहा हूँ मेरी बेटी
तुम्हे जिहाद के रैम्प पर क्या कैटवाकर बनाना है मुझे ?
या धरती की बहत्तर हूरों में से एक बनता तुम्हे देखता रहूँ मैं ?
नहीं मेरी बेटी
तुम्हे वहां भी भेजना दरअसल तुम्हे जिन्दा मार देना है
क्योंकि खुदा वहां किसी आत्मघाती हमले में जमींदोज हो चुका है
और पवित्र कुरआन की आयतें
धमाकों के बीच
मृतपाय मनुष्यता के शोक गीत गा रही हैं
खोजते-खोजते अब थक गया हूँ मेरी बच्ची
लगता है कोई शहर,कोई देश
अब नहीं बचा
कि जहाँ मैं तुम्हे भेज सकूँ
उड़ने को
बढ़ने को
चाहे दिल्ली हो या मद्रास
चाहे अमेरिका हो या फ़्रांस
तुम्हे एक हरी धरती
और एक साफ़ आसमान देने में
तुम्हारा यह पिता शायद अक्षम है
पर हाँ,
एक सम्भावना अब भी बची है मेरी बच्ची
भले ही थोड़ी सी ही
पर अभी भी शायद एक जगह
हमेशा की ही तरह
आदमी से बची रह गयी है
और वह है- गर्भ
तुम्हारी माँ का
सजल और स्निग्ध
अच्छा होगा कि लौट जाओ मेरी बच्ची
उसी अँधेरी कोख में
लौट जाओ मेरी तितली
उसी हिरण्यगर्भ में
लौट जाओ मेरी आत्मजा
सृष्टि के उसी अधिष्ठान में
जहाँ की पवित्र शांति में
तुम्हारी प्राण-नाल जुडी है
तुम्हारी माँ के पेट से
ह्रदय से
मन से
लौट जाओ बेटी
स्वतंत्रता और गरिमा के उसी निर्जन में
जहाँ आदमी
उसका समाज
उसका धर्म
उसकी आसमानी किताबें
और उसके खुदा भी पहुँच नहीं सकते
कभी भी नहीं पहुँच सकते
लौट जाओ मेरी बेटी
कि यहाँ धर्म,धर्म नहीं,अनाचार है
न्याय,न्याय नहीं, बलात्कार है
खुदा, खुदा नहीं
धरती पर होता हुआ सनातन व्यभिचार है
लौट जाओ मेरी बेटी
कि पिता, अब पिता नहीं
एक नीरीह कविता है
और कविता, कविता नहीं
बस, एक बेबस तर्पण है-
ॐ, न तातो न माता न बन्धु: न दाता |
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता ||
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव |
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ||
(चर्चित अभिनेत्री दीप्ती नवल की एक तस्वीर)
ऋतुसंहार
_______________
उसने जब कहा
कि कल किसी और के साथ
वह रतिरत हुई
तो मुझे लगा
कि मेरी दुनिया ही भष्म हो गई
दरअसल वह दूसरा आदमी
जो आभास में ज्योतिर्लिंग था
एक मौखिक अभिसार के बाद
उसके भीतर
गहरे समाहित होने की अपनी बेचैनी को
ऋतु आने तक
रोक न सका था
और उसने
इस अप्रत्याशित पर साहसिक मंथन को
केवल हमारे प्रेम की बिना पर
न होने देने को
अमानवीय-सा समझा था.
(बी.एच.यू. के दृश्य कला विभाग में लगी एक तस्वीर)
प्रेमेतर
इतर प्रेम कोई पाप नहीं है
चाह भरे दिल में
उसका पलना
केवल दैहिक ताप नहीं है
गलत नहीं उस खिड़की को गह लेना
जो घरनी की सूनी आँख बनी हो
नहीं बेतुका वहां बैठना
जहाँ ठिठक कर बैठि दिखे
प्रियतमा कोई उदास
वह सब पुनीत है
जितना इनमें बचा हुआ है प्रेय
होने को दाह
नहीं बुरा है वह चौर्य-भाव
जब खोजे कोई
उनके तन में
उनके मन में
यदि बची हुई हो
कहीं भी कोई राह
भले ही उस पर छाप पड़ी हो अन्य राग की
या फिर जो ना चली गई हो
उतर कर उन राहों पर चलना
किसी किनारे हौले से
उस रस को भर लेना
भर देना
नहीं नारकीय अघ जैसा
ना शाप देव का
ना क्रोध ऋषि का
ना शब्द विरोधी मंत्र विरोधी
ना ही ऐसा कुछ है उसमें
जो हो शास्त्र-असम्मत लोक-असम्मत
मत पूछो आसमानों से
प्रेम कोई अजपा जाप नहीं है.
(चर्चित कवि - चित्रकार कुंवर रवींद्र दा की तस्वीर)
अनप्तकामिनी
____________
डूब जाओ
कितना ! ये मत पूछो
बस जितना हो
और समझते हो
तथा समझाए गए हो
वो सब मिलाकर
डूब जाओ
पर ये मत समझना
कि बस उतनी भर जगह है मुझमें
डूबने की
जगहें और भी हैं
उनके अलावें
जो तुम्हें डूबने लायक लगती हैं
लगती रही हैं
सदियों से जिनमें डूबने की
बस आदत है तुम्हे
जबकि वे जगहें
जिनमें आज तक तुम डूबने से बचते रहे
और भी ज्यादे गहरी हैं
तरल हैं
कुंवारी हैं
पर उन तक तुम कभी आये नहीं
आते ही नहीं
डूबते ही नहीं !
सच सच बताना
आसमानों से अब तक भी डरते ही हो क्या ?
देखो !
तुम उन जगहों में किसी और तरह से भी
डूब सकते हो
जैसे कि हवा बनकर
या बादल
या पानी
या बस एक नन्हीं तितली बनकर
जो कि दूसरी जगहों पर तुम बनते हो
पर मेरी इन जगहों पर पता नहीं क्यों ?
कैसे बताऊँ तुम्हें
कि सदियों से बची हुई हैं
सुलगतीं न जाने कितनी योनियाँ मुझमें
तुम्हारे पानियों की चाह में
पर जिन्हें न देख पाए तुम
और ना ही छू सके
तुम सुन तो रहे हो ना ?
क्या डूबना चाहोगे उनमें !
बेशर्म, बेगुनाह, बेवक्त
बिना कुछ खोले
बिना कुछ उतारे
बिना कुछ डाले
बिना कुछ तोड़े
बिना कुछ झिझोंड़े
पौरुषहीन, मंथनहीन
निस्पंद, निःश्वास, लगातार
आह ! कि बस एक बार !!
इन्हें यदि देख सकते तुम
मुकम्मल छू भी सकते तुम
निकलकर स्वयं से
आपादमस्तक
डूब सकते तुम
फ़कत एक आदमी बनकर
(कुंवर दा की तस्वीर)
( कवि परिचय )
उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद जिले के वेदपुर (मांडा) गाँव में जन्म | उच्च शिक्षा भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू, नई दिल्ली से | कुछ दिनों केंद्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान,लेह,लद्दाख में अध्यापन कार्य | 2006 से, बीएचयू,वाराणसी के डीएवी कॉलेज के हिंदी विभाग में अध्यापक एवं अध्यक्ष |
छात्र आंदोलनों में सक्रियता | हिंदी की शीर्षस्थ पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित | रामचरितमानस की औपनिवेशिक, कथावाचकीय और तथाकथित प्रगतिशील व्याख्याओं से मुठभेड़ एवं उसके सटीक अर्थायन का निरंतर प्रयास | कहानी ‘ज्ञानक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे’ एवं ‘मसान भैरवी’ को विशेष लोकप्रियता मिली तथा नाट्य रूप में मंचित भी हुईं | कथा भाषा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय शोध कार्य |
प्रकाशन:
आलोचना-ग्रन्थ- ‘निर्मल वर्मा की कथा भाषा’ (2012), ‘साहित्य की आत्म-सत्ता’(2015),
कविता-संग्रह- ‘पत्थरों के दिल में’(2016)
पुरष्कार/सम्मान: आलोचना का पहला ‘सीताराम शाष्त्री सम्मान-2016’
सम्प्रति: अध्यक्ष,हिंदी विभाग, डीएवी पीजी कॉलेज (बीएचयू), औसानगंज, वाराणसी-1
Email: sarveshsingh75@gmail.com
Mob: 9415435154