Saturday 5 August 2017

मुग़लसराय केंद्रित गुरु-शिष्य की कविता

मुग़लसराय आज परिदृश्य में है । आज अपने ब्लॉग पर शिष्य और गुरु की मुग़लसराय केंद्रित कविता साझा कर रहा हूँ ।


.. मुगलसराय ज़क्शन का सर्वोदय बुक स्टाल

पटरियों पर दौड़ती रेल और उसकी
सीटियों के बीच
अलसुबह, प्रकाश खड़ा हो जाता है
किताबों के साथ
उस स्टेशन पर जिसे लोग ट्रेनों का मायका कहते है
मैं जब भी कहीं से लौटता हूँ
अपने गृह जनपद से सटे सबसे बड़े रेलवे स्टेशन पर
लौटता हूँ
जैसे माँ लौटती है अपने मायके
दीदी लौटती है जैसे अपने गाँव
मेरे जनपद का हर बंदा लौटता है परदेश से
उसी तरह
इस स्टेशन पर
यहाँ लौटते ही लगता है हर सुर-लय-ताल
सम पर आ गये है
रेल की कर्कश ध्वनि यहाँ संगीत में बदल जाती है
और सर्वोदय बुक स्टाल में चलती बहस
एक तान में
किताबों के पन्नों की फड़फड़ाहट
और ट्रेन के पहियों के बीच शुरू हो जाती है जुगलबंदी
प्रकाश का हर ग्राहक उसके लिए महज एक ग्राहक
नहीं होता
वह होता है, मुहिम का एक साथी
और हर किताब एक नारा
जिसे थमाकर वह अपने आन्दोलन को
और विस्तृत करता है
हर ग्राहक की स्मृति को संजो लेता है
अपनी डायरी में
और खुद बन जाता है स्मृति का हिस्सा
इस शहर के हर छोटे-बड़े लिखने-पढ़ने वालों की यह अड़ी है
जहाँ हर कोई करता है जुगाली
और धीरे-धीरे ज्ञान उसके भीतर
रिसने लगता है
मैं जब बढ़ता हूँ आगे
स्मृतियाँ भी होती है साथ
याद आती है माँ की वो बात
कि जब वह जाती है अपने मायके
वहाँ के धूल और फूल के साथ बंध जाती है
वाणी थोड़ी और मुखर हो उठती है
पाँव थिरकने लगते है
मन कुलाचें भरने लगता है
पूरी प्रकृति पंचम स्वर में लगती है गाने
उस संगीत के मिठास में, मैं चुपके से घुल जाता हूँ
जैसे सब्जी में घुल जाता है नमक!
डॉ रविशंकर उपाध्याय

मुगलसराय वाया 'मंगल का सराय'!

मेरी माँ अक्सर कहती थीं उसे 'मंगल का सराय'
जहां तब के कलकत्ता जाते यात्री सुस्ता लेते
और लौटती यात्रा की थकान मिटाते
अगले पड़ाव की ओर निकल पड़ते

यह पूरब का प्रवेश द्वार था
जो महज़ एक स्टेशन नहीं था

यहां एक संस्कृति थी जो गठरी में बंधी नीद की तरह पहले सिकुड़ती थी
फिर दूर से आती सीटियों की आवाज में
धीरे धीरे पूरब की तरफ फैल जाती

पूरब का सूर्योदय इसी रास्ते होता था
और वावजूद इसके कि यहां से पश्चिम भी
जाया जा सकता था
हम लगातार पूरब ही जा रहे थे!

यहां से गुजरना अपने पुरखों के पद चिन्हों से गुजरना था
जिसे सड़क -ए -आज़म के नाम से
कभी शेरशाह ने पुचकारा था!

यह अन्य सरायों में एक अलग सराय था
जहां घोड़ों की टापों से अधिक
संगीत की ध्वनि गूंजती थी
और दूर देश से चले आते पथिक
थोड़ी देर के लिए मगन मन सुस्ता लेते

हमारी चेतना में बसा यह स्टेशन
महज़ स्टेशन नहीं,सटेशन था
जिसके भीतर तक बजते हुए संगीत में
हमारी हलचलों का लेखा जोखा मौजूद था !

जब जब बनारस से बात नहीं बनी
या कि कोई गाड़ी यहां से नहीं गुजरी
वह मुगलसराय के नाम से गुजरती हुई मिल जाती

हमारे लिए तो जो वहां से नहीं जाती
उसे भी वहां से जाना था
और जिसे कहीं नहीं होना था
शुद्धता के हर दावे के खिलाफ
उसे भी यही कहीं होना था!

कितनी लचक है इस नाम में कि जिसने जिस रूप में देखा
सुंदर दिखा
और एक लोचदार संस्कृति को अपने गर्भ में संभाले
सदियों से ललचाता रहा

मुगलसराय जो कि महज़ एक नाम नहीं है
उसे नाम में कैद करना
एक धड़कते इतिहास को परिहास में बदल देना है

यह ताकत के दायरे में हमारी स्मृति की हत्या है
जिसे समय की एक अनपेक्षित मृत्यु ने
सामूहिक उत्सव में बदल दिया है!

 - श्रीप्रकाश शुक्ल