Sunday 8 January 2023

ज्ञानेन्द्रपति की तीन कविताएँ

 

(तस्वीर सौजन्य : मनीष गुप्ता)

नए वर्ष में कुछ नया संकल्प लेते हुए अपने ब्लॉग "प्रसंगतः" को पुनर्जीवित करने की इच्छा है और इसी सदिच्छा से ज्ञानेंद्रपति की तीन पुरानी कविता साझा कर रहा हूँ। ये उनकी आरम्भिक कविताओं में से हैं और इन कविताओं को उनके संग्रह 'भिनसार' की कविताओं से जोड़कर पढ़ना चाहिए। इन कविताओं को पढ़ते हुए ज्ञानेंद्रपति की उस ताप को महसूस कर सकते हैं जिसमें युवा आक्रोश और समय, समाज की विसंगतियों और रूढ़ियों से मुक्त होने की जद्दोजहद है। 

प्रस्तुत है : ज्ञानेंद्रपति की कविताएँ

उनके जाने के बाद


रात बात जहाँ से टूटी थी वहाँ से

शुरु करना चाहता हूँ

इधर देखो तुम इधर देखो मेरी आँखों में जहाँ

आग दुगुनी होकर जल रही है

मत देखो उस रास्ते को जहाँ अभी तक उनके घोड़ों की उड़ाई गर्द है

और जिसके आख़िरी छोर पर धीरे-धीरे छोटी होती

उनकी पीठें

 

अपनी ऐंठी गरदनें मोड़ो और इस अलाव को देखो

जहाँ लकड़ियाँ अभी तक अपने भीतर की आग बाहर कर रही हैं

इस आग से अपने जिस्मों को जोड़ो और मेरी बात सुनो

बात--जो अधसुनी रह गई है अनसुनी कर दी गई है

बातजो हमारे बीच के उन दो-चार चेहरों ने शुरु की थी जो

काले जख्मों से भरे थे रात चढ़ते जब हमारी पीठों पर अँधेरे के

हाथ लम्बे होने लगे थे और सख्त, उन चेहरों पर पड़ी अँधेरे की खरोंचें

एक खास ढंग से चमकने लगी थीं और अलाव की लहक पर झुककर

उन्होंने अपनी बात शुरु की थी

ठीक तभी हमारी पीठों पर अँधेरे का दबाव वहशी हो गया था

ठीक तभी अँधेरे से निकल कर आये थे वे घुड़सवार

दिग्विजयी दुस्साहसी जाने कितनी यात्राओं का रोमांच उनके कपड़ों पर

धूल की तरह लगा था

तब सब-के-सब खुशी में पागल हो रहे थे

लहक की ओर अपने गंधाते बूट किये वे बैठे थे और अपनी

जय-यात्रा के किस्से सुनाने लगे थे अपनी बाँहें खोल कर एक-एक खरोंच का

इतिहास उन्होंने बताया था

कपडे हटाकर अपने लटकते गुप्तांग दिखलाये थे

और उन दुस्साहसिक अभियानों

की कथा सुनाई सुनाई थी जो इस ध्वज-भंग का कारण बने

सब-के-सब चुप थे जैसे मंत्र-मुग्ध

अलाव की आग धीरे-धीरे मंद पड़ने लगी थी

कुतूहल ने हर किसी की साँस रोक दी थी

यह कोई नहीं देख पाया कि हमारे बीच से उठकर हमारे अपने वे चेहरे

कब चले गये जो अँधेरे के जख्मों से भरे थे

जिन पर अलाव की आँच थी

वे चले गये क्योंकि उनका वक्त हो गया था

वे चले गये अपनी अधसुनी बात से अपने खुले होठों को जलाते

 

फिर जब वे कीर्तिध्वज उठकर

अपने किस्सों को समेटने और अपने घोड़ों पर लादने लगे

हमें होश आया

वे जा रहे थे अँधेरे में वे अपने आकार से बड़े दिखते थे

पर यह सच था कि वे जा रहे थे

अलाव की आग जमीन से लिपट गई थी

और हमारी पीठों पर अँधेरा घना बहुत घना हो गया था

 

अपने घोड़े दुलकाते

वे जा चुके हैं

और अब यहाँ धीरे-धीरे बैठती गर्द है

और उनके बासी किस्सों की बास

और अँधेरे के फील-पाँव हैं

अलाव की लपट के साथ

ऊपर-नीचे और मैं

वह बात जोड़ना चाहता हूँ जो रात आधे में टूटी थी-- इसे सुनो

अलाव पर झुके हुए तमतमाये फूँकते

इसे सुनो कि अँधेरा जब बहुत वहशी होता है तब

वह बहुत कमजोर होता है इसे समझो

यह बहुत अजीब है पर सच है कि तुम

पीठ पर अँधेरे की गिरती दीवारें लिये जब

अलाव की आग में अपनी आग मिलाते हो तब

सूरज के निकलने में मदद कर रहे होते हो।


(तस्वीर सौजन्य : अकबर पदमसी)

पता


राजन्, वे कौन हैं

यह हम नहीं जानते

वे कहाँ से किधर से आते हैं हम नहीं जानते हम केवल यह जानते हैं

कि उनकी मुट्ठी कितनी कसी होती है काले कपड़ों के भीतर उनकी

देह कितनी सन्नद्ध और सिकुड़ी होती है अँधेरे में उनकी आँखें

कितनी और किस तरह चमकती हैं, राजन् हम केवल यह जानते हैं कि वे

अकस्मात् कहीं से निकल कर सामने आ जाते हैं जैसे अँधेरे के दबाव से पैदा हुए

इससे अधिक हम कुछ नहीं बता सकते, महाराज! हमारे बिके हाथों में जो

ऐंठन होती है उसे जाना ही जा सकता है! द्वारपालों के लिए बनी बुर्जियों

से कूद कर जब हम गिरफ्तार करने के लिए उनके हाथ थामते हैं तभी

तभी वह होता है हाँ महाराज! तभी...उनके काले हाथों पर जगह-जगह

अँधेरे के गाढ़े चकत्ते होते हैं पैर खपड़े की तरह फैले और धरती में

मिले होते हैं और आँखें अँधेरे के उसी काले पत्थर को काटकर

बनाई गई होती हैं जिससे पशुओं की आँखें बनती हैं और उनमें

प्रकाश की इच्छा जलती रहती है

यही वह वक्त होता है, पालक! जब हम डूब जाते हैं प्रकाश की इच्छा क्या

कोई छूत होती है जो अँधेरे की चौकसी करने वालों के भीतर भी

फैलती है?

आपके महल में कुहराम मच जाता है भृत्य बदहवास भागते हैं तलवारें खनखनाते रक्षक

इधर-उधर दौड़ते हैं अन्तःपुर से आर्त्तनाद उठता है राजमहिलाओं के गले से

सोने की सिकड़ियाँ खोल ली जाती हैं राजकुंवरों के कुंडल सहित कान

कतर लिये जाते हैं गौरवशाली पुरखों की आदमकद तस्वीरें धकापेल में औंधे मुँह

गिर पड़ती हैं

और हम बुत की तरह खड़े पाए जाते हैं कुहराम मचाने वाले पता नहीं कहाँ अदृश्य हो जाते हैं

फाटक तक आते वे देखे जाते हैं और हमारे पास ही कहीं अँधेरे में

घुल जाते हैं

हम मुश्कें कस कर दरबार में लाए गए हैं, ठीक है पर इससे अधिक हम क्या

बता सकते हैं आप बेशक हमारी खाल के खोल में भुस भरवा दें हम खुद

अचरज से अपने पैरों को देख रहे हैं जो आपके दिए बूटों को फाड़ रहे हैं और

खपड़े की तरह फैलते जा रहे हैं हमारी आँखें लहर रही हैं क्या वे

अँधेरे के उसी काले पत्थर से बनी आँखों की तरह

प्रकाश की इच्छा में जलने लगी हैं?

 

(तस्वीर सौजन्य : PRC, CPI. ML)

सिलसिला


युद्ध युद्ध युद्ध युद्ध

कैसा होता है यह युद्ध तुम्हें क्या बताऊँ

अभी जब तुम उस तने हुए शिशु-शिश्न से

निकाल कर वे निर्दोष स्वप्न

अपनी जाँघों में भर रहे हो

इस दहकती अँगीठी को पीठ दिये

बाहर के तूफ़ानी मौसम को गुर्राती आँखों

घूर रहे हो हवा भी जिसकी तरफ़ से इन बंद

खिड़कियों के काँचों पर चलाती है ठंडी लपलपाती छुरियाँ

उसके लिए वहशी गालियाँ बुदबुदाते

तलहथियों को रगड़ रहे हो

तुम्हें क्या बताऊँ कि यह युद्ध कई बार लड़ा गया है

बिल्कुल ऐसे ही

इसी निश्चित शुरुआत और

निर्धारित खात्मे के बाद

 

मैं जानता हूँ तुम पलट कर नहीं देखोगे

तुम्हें मेरी आवाज़ किसी सड़े कुएँ के भीतर से

आती लगेगी

हाँ तुम पलट कर नहीं देखोगे

इन अंगारों की दहक में मेरा ज़ख्मों और दागों से भरा चेहरा

बड़ा बीभत्स दिखता है

एक घिन तुम्हारे उठे पैरों को झुरझुरा सकती है

और तुम्हारे तने हुए गले को छील सकती हैं

घोंटी हुई उबकाइयाँ

और बार-बार मुझे अपाहिज़ अपाहिज़ अपाहिज़ कहते हुए

तुम थूकने लगोगे मेरे चेहरे पर अपना पीला खँखार

और तुम यह नहीं चाहते

आराम कुर्सी पर लुढ़के हुए मुझको

किसी मरे घोड़े-सा छोड़ जाना चाहते हो पीछे

बग़ैर किसी गुस्से के

 

हाँ मैंने भी यही किया था

इसी तरह मैंने भी झटके से उतारा था

खूँटी पर टँगा हुआ वह पुश्तैनी शिरस्त्राण

जकड़ी आलमारी को खोल कर निकाले थे

कड़कड़ाते लोहे के वस्त्र

इसी तरह उस भारी तलवार को उठाया था

और कहा था : अब इसकी जंग

खून ही छुड़ायेगा

उस पालने को आखिरी बार

मज़बूती से हिलाया था

और एक बार केवल एक बार

अपनी फफक रोकती दो आँखों को देखा था

और झटक कर सिटकनी खोली थी

और चौखट को फलाँगता

बाहर

निकल गया था

 

फिर वह पागल जूझ

वे उत्तेजना में चितकबरे लोग

जिनके आगे-आगे अपनी चमड़ी फाड़कर भागता मैं

वह बदहवास लड़ा गया युद्ध वह चिचियाहट चीत्कार

पसीने और कीचड़ और रक्त में लिथड़े चेहरे

और आख़िर: आख़िर मैंने ही किया था उस पर

वह वार

अपनी थरथराती तलवार का वह टेढ़ा वार

कि उसकी एक बाँह उड़ गई थी

खून की एक तेज धार फूट चली थी

और मांस के ढेर से लोथड़े

चिथड़ गये थे

उसकी बिलबिलाहट से वह पूरा इलाक़ा गूँज उठा था

और कँहरता और गलगलाता

वह भाग खड़ा हुआ था लड़खड़ाते हुए

हमने चीखते हुए

हवा में तलवारें उठा दी थीं

और भीड़ के कन्धों पर खड़े होकर मैंने कहा था: अब उसकी माँद में से

उसकी मरती हुई डकार सुनाई पड़ेगी

 

चीखते लोगों के लचकते कन्धों के ऊपर सवार

मेरे ऊपर

नगर की इमारतों पर से

लाल-उजले फूल गिर रहे थे

हज़ारों कण्ठों से एक साथ रचे जा रहे विजय-गीतों के मेहराबों

के नीचे से

हमारा जुलूस

किसी आदिम उन्माद की तरह लौटा था

उस रक्त में लथपथ कटी हुई भुजा के बघनखे

हमने नोंच दिये थे

और उसकी बोटियाँ चोथ कर

नगर के भूखे कुत्तों और

श्मशान की ओर जाते उदास गिद्धों को

खिला दी थीं

 

वह विजय-पर्व जाने कितनी देर तक मनता रहा था

 

फिर लौटा था रात गये

उल्लास और इंतज़ार में बलती हुई आँखों को आँखों से सहलाता

मैं इसी कमरे में आया था

और सामने की दीवार पर टँगी हुई

अपाहिज पिता की तस्वीर के सामने

तन कर खड़ा हो गया था

 

दो भींगे हाथ

मेरे जख्मों को सहलाते रहे थे

और फिर मेरे कवच को खोलने लगे थे

कि मेरे सामने उमंग में खिला हुआ मुँह

अचानक टेढ़ा हो गया था

और एक भयावनी चीख

सारी रोशनियों को झपझपाती चली गई थी

एक ऐंठी आवाज ने कहा था

हाथ? तुम्हारा हाथ?

 

मैंने चौंक कर देखा था

एक कंधे के पास

मांस का जरा-सा लोथड़ा भर हिल रहा था

किसी भोथरी तलवार के टेढ़े वार ने

मेरा एक हाथ उड़ा दिया था

आतिशदान की दहक में

जमे खून की पपड़ियाँ दिखी थीं

और उस लोथड़े के नीचे झूलता

भयावह शून्य

 

मैंने जैसे किसी मूर्छा में चल कर

उस रक्त में लिथड़ी

तलवार को उचक कर

उसकी जगह पर टाँग दिया

और लड़खड़ाता हुआ

इस आरामकुर्सी पर आ गिरा

उसी वक्त तुम अपने पालने में पड़े

ज़ोर-ज़ोर से चीखने लगे थे

वैसे तुम्हारे रुदन का मेरी डरावनी कँपकँपी से

कोई सम्बन्ध नहीं था

तुम्हारे किसी सपने से हो तो हो

 

अपने होंठ भींचे

तुम अभी जिस तलवार को उलट-पुलट रहे हो

उस पर लाल-भूरी पपड़ी में जमा हुआ

यह वही रक्त है

जो अब जंग में तब्दील हो गया है

 

बाहर हवा किसी चीख़ते साइरन की तरह

बजने लगी है

और खड़खड़ाते पत्ते और कोलाहल करते लोग

तुम्हारे भीतर की सँकरी गलियों को पार कर

तुम्हारे चेहरे पर उभरने लगे हैं

 

मैं जानता हूँ अब तुम नहीं रुकोगे

एक झपट्टे में

दरवाजे की सिटकनी खोलोगे

और माथा उठाये

बाहर के बेचैन अँधेरे में कूद पड़ोगे

 

इस अँगीठी के पास आरामकुर्सी पर

मैं इसी तरह

इस स्टूल पर पाँव फैलाये

लेटा रहूँगा

मेरे अपाहिज़ पिता की तस्वीर के नीचे

लटके रहेंगे मेरे कान

दरवाज़े पर होने वाली हल्की भी आहट के लिए

 

फिर एक थकी हुई दस्तक होगी

और लँगड़ाता हुआ मैं

किवाड़ों को खोलूँगा

रौशनी और अँधेरे के बीच खड़े तुम

अपने लुंज हाथ को उठाने की कोशिश करते होगे

और तुम्हारे पीछे

जीत के बाजे बज रहे होंगे

धीमे-धीमे पर लगातार

 

घिसटते हुए तुम भीतर आओगे

और धीरे से इस स्टूल पर बैठ जाओगे

दरवाजा बंद कर घिसटता हुआ मैं आऊँगा

और आरामकुर्सी में धँस जाऊँगा

हम कुछ कहेंगे नहीं एक दूसरे को

हम देखेंगे नहीं एक दूसरे को

तब एक दूसरे से अलग हम चीन्हे भी नहीं जा सकेंगे

चटचटाती अँगीठी की ओर बेमतलब देखते हुए

 

खिड़की पर रेंगती

दूर चिल्लाते बाजों और लोगों की आवाज़

किसी चींटी की तरह मर कर

गिर पड़ेगी

और बाहर हवा तेज़ और तेज़ और तेज़ होती जायेगी

खिड़कियों और दरवाजों को

लगातार टकटोरती

 

तब पालने में लेटा हुआ तुम्हारा बच्चा

दोनो हाथों की मुट्ठियाँ हवा में उछाल रहा होगा।


(तस्वीर सौजन्य : वेब)

 ज्ञानेंद्रपति

ज्ञानेन्द्रपति हिंदी कविता के क्षेत्र में नये विषयों की खोज और अपनी काव्य-भाषा की विलक्षणता के कारण जाने जाते हैं। आधुनिकता और परम्परा के सीमांतों पर एक साथ विचरते हुए उन्होंने हाशिए के आदमी की संवेदना को अपनी कविता में विन्यस्त किया है। कविता उनके जीवन से अभिन्न  है। फिलवक्त बनारस में रहते हैं और बनारस को जीते हैं। 'गंगातट' और 'गंगा-बीती' उनके चर्चित कविता संग्रह है, जिनमें बनारस प्रमुखता से अभिव्यक्त है। उनके कविता-संग्रह 'संशयात्मा' को वर्ष 2006 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। काव्य-नाटक 'एकचक्रानगरी' और कविता-संकलन 'कविता-भविता' उनके अद्यतन प्रकाशन है।